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________________ सम्पादकीय जैन उपासना जैन उपासना का लक्ष्य है सर्वदुःखों से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा से परमात्मा बन जाना। आत्मविकास के लिए यहाँ बाह्य साधनों को भी लक्ष्य नहीं किया है अपितु शरीर और आत्मा को साधन मानकर साध्य की प्राप्ति करना बताया है। आचार्य मानतुंग स्वामी भक्तामर स्तोत्र में कहते हैं कि: नात्यद्भुतं भुवन भूषण! भूतनाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्याभवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इहनात्म समं करोति ॥ १०॥ अर्थात् हे संसार के भूषण और प्राणियों के नाथ! सच्चे गुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर आपके बराबर हो जाते हैं; यह भारी आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि ऐसे स्वामी से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता जो इस लोक में अपने आधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने बराबर नहीं करता। अन्य धर्म जहाँ एकात्म की बात कर सभी प्राणियों को परमात्मा का अंश मानते हैं वहीं जैनधर्म सभी में एक जैसी आत्मा मानकर आत्म विकास का बराबर अधिकार देता है। हमारी उपासना पद्धति समतावादी दर्शन पर आधारित है। जहाँ व्यक्त्योदय, वर्गोदय नहीं अपितु सर्वोदय को लक्ष्य रखा गया है। हमारे तीर्थंकर भी कहते हैं कि बनो तुम भी वैसे, जैसा कि मैं हूँ। ____ जैन उपासना का एक लक्ष्य बंधन मुक्ति भी है। सांसारिक बंधन भी प्रभुनाम स्मरण से खुल जाते हैं। आचार्य मानतुंग के अनुसार : आपादकण्ठ मुरु शृङ्खलवेष्टि ताङ्गाः, गाढं बृहन्निगडकोटिनिघष्ट जङ्घाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यःस्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥४६॥ अर्थात् पैरों से गले तक बड़ी-बड़ी जंजीरों से जिनके अंग वेष्टित हैं तथा अत्यन्त बड़ी-बड़ी बेड़ियों के अग्रभाग से जिनकी जाँघे छिल गई हैं, ऐसे मनुष्य आपके नाम रूपी मंत्र का निरन्तर स्मरण करते हुए तत्क्षण अपने आप बन्धन के भय से रहित हो जाते हैं। जैन परम्परा एक ईश्वर में विश्वास करती है जो विशुद्ध आत्मा का प्रतीक है। इस परमात्म पद को सभी प्राप्त कर सकते हैं। जो लोग ईश्वर को कर्ता और हंता मानते हैं जैनधर्म उसका खण्डन करता है। आचार्य मानतुंग कहते हैं कि: बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धि बोधात् । त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्कर त्वात् । धातासि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानाद, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ अर्थात् हे धीर! देवों अथवा विद्वानों द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हो, तीनों लोकों को सुख करने वाले होने से आप ही शंकर हो, मोक्षमार्ग की विधि के निर्माण कर्ता होने से आप ही विधाता हो, हे भगवन् । आप ही स्पष्ट रूप से पुरूषोत्तम विष्णु हो। जैन उपासना का प्रमुख लक्ष्य आसन्न विपदाओं से मुक्ति और कालान्तर में मोक्ष प्राप्ति रहा है। जैन धर्मानुयायियों का विश्वास है कि गुणग्रहण का भाव रखने तथा गुणों का चिन्तन/बखान करने से उन गुणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524301
Book TitleJinabhashita 2005 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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