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सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर में दिया गया प्रवचन
जानना व्यक्ति का स्वभाव है माँ गर्भस्थ शिशु का पालन-पोषण करती, शिशु पर अच्छे संस्कार पड़ें इस हेतु संस्कार भी प्रदान करती है। बालक को खिलाना-पिलाना-सुलाना इत्यादि भी सिखा देती है। खाना कैसे खाया जाता है सिखाया, ऊंगली पकड़कर चलना सिखाया, लेकिन संसार में स्वयं को जानने का गुण किसने सिखाया ? उस बालक को जानना किसने सिखाया ? कौन जानता है और कब से जानता है ? यदि इसे शोध का विषय बना दिया जाय तो विद्यार्थी पहली सीढ़ी पर ही फिसल जायेगा। किसी ने किसी को जानना नहीं सिखाया। तीर्थंकरों को भी किसी विद्यालय में नहीं सिखाया गया। व्यक्ति जो कुछ भी सीखता है स्वयं के व्यवहार से सीखता है ।
आत्मा किसी से संबोधित नहीं होती, अपितु वह परिवर्तित हो जाती है। आपकी जीवन गाथा लिखी जाये तो धरती भी छोटी पड़ेगी। सही जानकारी प्राप्त करने के लिये बाहरी जानकारी गौण करना होगी। देह-चिन्तन से विपरीत चिन्तन ही सामायिक है। शरीर जड़ है, तो आत्मा चेतन है। आत्मा के बारे में जानकारी संकेत है, जो जड़ से विपरीत है, उसकी तुलना नहीं कर सकते हैं।
आदमी जब तिर्यंचगति में जाता है तो तिर्यंची हो जाता है, नरक में जाता है तो नारकी हो जाता है और जब मनुष्यगति को प्राप्त करता है तो मनुष्य हो जाता है तथा वह जान जाता है कि मनुष्य हो गया है। पानी आग का स्वभाव नहीं बदल सकता, उसे बुझा सकता है। मैं आखिर क्या हूँ ? कैसा हूँ? क्यों हूँ? क्यों जानता हूँ? यह जिज्ञासा होनी चाहिये। स्वभाव के विषय में जिज्ञासा होनी चाहिये। जब तक प्रश्न रहता है तो उत्तर के लिये परिश्रम करना पड़ता है, जिज्ञासा रहती है।
दुनियाँ कैसी चल रही है अपनी-अपनी प्लानिंग के साथ ? किसी के कहने से कोई अपनी प्लानिंग नहीं बदलता। कोई जानकारी नहीं हो, तो दूसरे की प्लानिंग फेल नहीं कर सकते। आपके उद्देश्य आपके विपरीत हैं, तो आपका ज्ञान अभिशाप है।
चीज की खोज हमें करना चाहिये। आत्मतत्त्व को छानना नहीं, जानना होता है। हमने जिस-जिस को याद किया उसको भूलना होगा, तब आत्मतत्त्व को पहचान पाओगे। यात्रा
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o आचार्य श्री विद्यासागर जी
भले ही लम्बी हो गई हो, पुरानी हो गई हो, लेकिन आत्मा ज्यों की त्यों है। संवेदन हमारा स्वभाव है, जिसके बल पर हम जानते रहते हैं। स्वभाव को सिखाया नहीं, जाना-पहचाना जाता है। अनुभव की बात कभी विस्मृत नहीं होती, पराई सुनाई बात भुलाई जा सकती है। स्वभाव को पहचान लो, तो विभाव को भूल जाओगे।
मेरे द्वारा पराये का संवेदन नहीं, पराये के द्वारा मेरा संवेदन हो रहा है। हम दूसरे को जानना चाहते हैं, यही सबसे बुरी बीमारी है। हमारी आँखें दूसरे को नहीं दिखा सकती। वस्तुतः हम दो हैं, तो एक कैसे हो सकते हैं ? दो वस्तु मिलकर एक तो बन सकती है, लेकिन दो होकर एक कैसे हो सकते हैं ? 'आप अकेला अवतरे, मरे अकेला 'होय' । वस्तु का स्वभाव रुकना नहीं है, जानना व्यक्ति का स्वभाव है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ के मंगलाचरण में किसी भगवान
का नाम नहीं लिया गया, किसी आत्मा का नाम नहीं लिया गया। उस 'ज्ञान' को अवश्य प्रकाश में लाया गया है। वह ज्ञानज्योति जयशील हो, उसे हमारा बारम्बार नमस्कार। वर्तमान की जितनी भी पर्याय हैं, उस ज्ञान में झलक रही हैं। वह ज्ञान केवलज्ञान रूप है। आचार्य उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में बताया कि गुण हमेशा-हमेशा द्रव्य के आश्रित होते हैं। गुणों की उपासना करने से एक तो अहम्-भाव समाप्त हो जाता है, रागद्वेष समाप्त हो जाता है। गुणों की उपासना कराना जैनदर्शन का परमलक्ष्य है। हम पूजक तो बने, पूज्य क्यों नहीं बने ? क्योंकि हमारे सारे गुण मटमैले हैं। आत्मा का स्वभाव ज्ञान है। उस ज्ञान
में
पूरा का पूरा संसार झलकता है। आजकल छलकन बहुत हो जाता है। हम अड़ोस-पड़ोस में छलक जाते हैं। तीन लोक को जाननेवाला उछलता नहीं। आपको उछलनेवाला नहीं बनना है। समुद्र अपने तक सीमित रहता है, बाहर नहीं आता। यह उसका स्वभाव माना जाता है। बाहर आने पर सुनामी जैसी भीषण त्रासदी घटित हो जाती है। नीचे जल में भूमि के अन्दर 8 रिक्टर भूकंप तेजी से आया। ऐसी दरार जिसमें हिमालय - जैसा पर्वत समाहित हो जाय। अनेकों द्वीप समाहित हो गये, मनुष्यों की तो गिनती नहीं। इस घटना से ज्ञात हुआ कि भूमि पर क्याक्या होता है । सुनामी लहरें आने का ज्ञान हाथियों को हो गया। घटना के पूर्व वे उस स्थान से स्थानान्तरित हो गये। आपको राडार की व्यवस्था हो रही, मूक प्राणियों के पास पहले से राडार थे। राडार मतलब ज्ञान। जो भी सुख-दुःख है, उसी ज्ञान पर आधारित है। यदि ज्ञान नहीं होता तो न सुख है, न दुख है।
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प्रस्तुति : मुकेश शाह एडवोकेट एवं जयकुमार जैन 'जलज' हटा
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