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________________ प्रार्थना) की अमोघ शक्ति कह सकते हैं। वे चिकित्सा विज्ञान | है। हम रोज-रोज मन्दिर क्यों जाते हैं ? वस्तुतः प्रतिमा की को आध्यात्म विज्ञान के परस्पर सह सम्बन्धों (Corelation) | ध्यानस्थ मुद्रा के दर्शन से हमें अपनी मौलिकता में लौटने पर प्रयोगों में जुट गये। का सन्देश प्राप्त होता है। यह ऐसा भाव रसायन है, जो जीवन एडिनवरा यूनिवर्सिटी के मेडिकल स्कूल के डॉक्टर | की असत् एवं वर्जनीय काषायिक प्रवृत्तियों को दूरकर जीवन 'मरे' अपने साथ मरीज की एक्स-रे रिपोर्ट और पेनिसिलीन | रुपान्तरण में परम सहायक बनता है। के साथ यह जानकारी भी रखते थे कि क्या मरीज कभी रोग के निदान में ध्यान और योग में अद्भुत क्षमता प्रार्थना भी करता है? प्रायः मरीज के मन में जो परेशानियां, | है। नार्थ कैरोलिना की डयूक यूनिवर्सिटी के डॉक्टरों ने पाया उसकी बीमारी पर हावी हैं उन्हें बाहर निकालने के लिए | कि जो लोग मन्दिर, उपासना गृह, प्रार्थना या ध्यानस्थल पर डॉक्टर प्रयोग करें, तो इलाज का प्रभाव ज्यादा सक्रिय होने | नियमित जाकर ध्यान करते हैं, वे इन स्थानों पर न जाने वाले लगता है। प्रो. स्टीव राइट के अनुसार डॉक्टर को पहले लोगों की अपेक्षा कम बीमार पड़ते हैं। अध्ययनों से एक अध्यात्म की जरुरत है, जिससे वह मरीज को प्रभावित कर | बात और सिद्ध हई है कि लोग सप्ताह में एक या अधिक बार सकता है। एडिनबरा विश्वविद्यालय के चिकित्सा-छात्रों के धर्मस्थलों/तीर्थस्थानों पर जाकर धर्मसेवा करते हैं, वे अन्य पाठ्यक्रम निर्धारकों से मांग की कि वे चिकित्सा-पाठ्यक्रम | की अपेक्षा सात वर्ष अधिक जीते हैं। के साथ अध्यात्म की कक्षाएं लगाएँ जहाँ उन्हें विधिवत् ब्रिटेन में 31 अध्ययनों से एक तथ्य उजागर हुआ ध्यान और प्रार्थना के वैज्ञानिक प्रशिक्षण से अवगत कराया | कि जो प्रार्थना में विश्वास रखते हैं और प्रतिदिन प्रार्थना करते जावे। उन्हें योग-विद्या के बारे में प्रशिक्षण भी दिया जावे। हैं, वे ज्यादा प्रसन्न रहते हैं तथा मानसिक तनाव कम होने से ध्यान और योग से शारीरिक स्थिरता के साथ मन को एकाग्र | वे शान्ति का अनुभव करते हैं। ब्रिटेन के डॉ. गिल व्हाइट किया जा सकता है। का कथन है कि -"अध्यात्म के जरिये चिकित्सा करते ध्यान एवं रोग निदान में इसकी महत्ता- ध्यान में | समय मैं उस समय तक प्रतीक्षा करती हूँ, जब तक मेरे किसी मन्त्र या मन्त्र - बीजाक्षर का निःशब्द चिन्तन है, जो | शरीर में एक करण्ट सा महसूस नहीं होने लगता। मेरे हाथ, आत्मशान्ति तथा संकल्प शक्ति को बढ़ाने में सबल निमित्त | मरीज के सिर व शरीर के ऊपर घूमते हैं और रोगी का मेरे है। 'ध्यान-संवेगात्मक भावों एवं मानसिक विकारों' पर | मन व शरीर से टयनिंग हो जाती है, जिससे हमारे व मरीज नियंत्रण कर व्यक्ति को सहिष्णु एवं तनाव रहित करता है। | के बीच ऊर्जा का संचरण होने लगता है।" क्रोध जैसे आवेग को ध्यान से कम करके शान्त एवं स्वभाव रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसीन के जनरल में में जीने में सहायता करता है। प्रकाशित एक शोधालेख में डॉ. डिक्सन के अनुसारहमारा चित्त/मन, सदैव विचारों की यात्रा करते | 'पहिले वह स्वयं अध्यात्म के जरिये ऊर्जा संचित करता है, हुए दौड़ा करता है। जीवन ऊर्जा का 80 प्रतिशत भाग यों ही जो उसे ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से प्राप्त होती है, फिर उसे मरीज व्यर्थ बाहर बहकर नष्ट हो जाता है। इसे संधारित करने की | को प्रदान करता है। अध्यात्म के क्षेत्र में 'विश्वास' या श्रद्धा क्षमता हम नहीं जुटा पाते हैं। ध्यान एवं योग से इस जीवन | एक शक्तिशाली चीज है। यदि डॉक्टर मरीज को यह ऊर्जा (चैतन्य धारा)को अपने भीतर रोक सकते हैं। जैसे | विश्वास दिला पाने में सफल है कि वह अपने आराध्य के उत्तल लैंस फैली हुई प्रकाश किरणों को एक बिन्दु पर | प्रति पूर्ण विश्वास रखे, तो जल्दी स्वास्थ्य लाभ ले सकोगे, फोकस कर ऊर्जा (ऊष्मीय) का निष्पादन करता है, ऐसे ही | ऐसे डॉ. की दवा ज्यादा असरकर साबित होगी। ध्यान से विचारों का प्रवाह/या विचारों का आक्रमण रुककर अमेरिका के 125 में से 50 मेडीकल कॉलेजों में विचार-शून्य स्थिति की ओर ले जाता है। ध्यान से हमारे | इस समय अध्यात्म-विषय को पाठ्यक्रम के रुप में स्वीकार विचारों में विकारों का परिशोधन होता है। कर पढ़ाया जा रहा है। डॉ. ब्रानले एंडरसन का कहना है कि ध्यान है - हमारी बाह्य कायिक/वाचनिक/ एवं | जब तक डॉ. स्वयं को अध्यात्म की ऊर्जा से चार्ज नहीं सूक्ष्म मानसिक भाव वृत्तियों का संकुचन/जितना-जितना | करेगा तब तक वह मरीज को इससे चार्ज नहीं कर सकता। बाह्य प्रवृत्तियों में संकुचन या निरसन होगा, उतना ही आत्म- | पश्चिमी जगत में आज आध्यात्मिक इलाज को समग्र इलाज शुद्धि या आत्म शक्ति का विकास होता चला जायेगा। ध्यान- | की संज्ञा दी गई है। जैनदर्शन की आत्मा है। यह चारित्र-शुद्धि का अन्तिम पड़ाव | भारत को विरासत, जिसका अलिखित पेटेंट अभी -मई 2005 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524296
Book TitleJinabhashita 2005 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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