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विशेष की अपेक्षा पंचम गुणस्थान वर्ती तिर्यंच भी वहाँ जा सकते हैं, जैसा कि श्री धवला पु. 4, पृष्ठ 169 में कहा है:
कधं संजदासंजदाणं सेसदीव - समुद्देसु संभवो । ण, पुव्ववेरियदेवेहि तत्थ घित्ताणं संभवं पडिविरोधाभावा ।
अर्थ : मानुषोत्तर पर्वत से परभागवर्ती व स्वयंप्रभाचल से पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप समुद्रों में संयतासंयत जीवों की संभावना कैसे है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि पूर्व भव के वैरी देवों के द्वारा वहाँ ले जाये गये तिर्यंच संयतासंयत जीवों की सम्भावना की अपेक्षा कोई विरोध नहीं है ।
प्रश्नकर्ता: कान्ताप्रसाद जी मुजफ्फरनगर।
जिज्ञासा - भ. बाहुबली की प्रतिमा मूलनायक के रूप में वेदी में विराजमान कर सकते हैं या नहीं ?
समाधान- शास्त्रों में केवलियों के दो भेद कहे गये हैं उनमें से एक तीर्थंकर केवली हैं और अन्य सामान्य केवली हैं। जब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की जाती है तब तीर्थंकर केवली के तो पाँचों कल्याणकों की क्रिया की जाती है परन्तु बाहुबली भगवान के बिम्ब के उपचार से तीन कल्याणक मात्र ही किये जाते हैं। इस प्रकार तीर्थंकर भगवान के बिम्ब को ही जिनालय में मूलनायक के रूप में विराजमान करना ही उचित है । भ. बाहुबली के बिम्ब को अलग वेदी बनाकर उस पर विराजमान करना चाहिए और उस वेदी में अन्य किसी तीर्थंकर का बिम्ब विराजमान नहीं करना चाहिए। प्राचीन आचार्यों की परम्परा भी इसी प्रकार है । जैसे श्रवणवेलगोला में यद्यपि भगवान बाहुबलि का जिनबिम्ब अत्यन्त विशाल है फिर भी भ. नेमिनाथ को ही आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धांत चक्रवर्ती ने वहाँ का मूलनायक माना है। हमें भी इसी परम्परा का अनुसरण करना चाहिए । जिज्ञासा- क्या सभी केवली समुद्घात करते हैं या
कुछ ?
समाधान - श्री धवला 1, पृष्ठ 301-304 पर इस संबंध में बहुत विस्तार से वर्णन है, जिनका सारांश यहाँ दे रहे
उत्तर - आ. यतिवृषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय में सम्पूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली, समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परंतु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की संख्या का वर्ष पृथकत्व में 20 का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते हैं और कितने ही नहीं करते हैं। प्रश्न- कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं ?
उत्तर :- जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान हैं, वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं।
प्रश्न- कुछ आचार्यों ने छः माह आयु कर्म के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न होता है वह समुद्घा करके ही मुक्त होता है, शेष केवली समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते, ऐसा माना है । इन गाथाओं का उपदेश क्यों नहीं ग्रहण किया जाये ?
उत्तर - नहीं, क्योकि इसप्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता । अतः इस उपदेश का ग्रहण नहीं किया गया है।
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उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि इस संबंध में आचार्यों के दो मत पाये जाते हैं, जिनका वर्णन उपरोक्त प्रकार से समझ लेना चाहिए।
जिज्ञासा उपशम सम्यक्त्व के साथ मन:पर्ययज्ञान होता है या नहीं ?
समाधान- प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ मन:पर्ययज्ञान संभव नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व से आये हुए उपशम सम्यक्त्वी के, उपशम सम्यक्त्व के उत्कृष्ट काल से भी, मन:पर्ययज्ञान से पहले आवश्यक संयम काल, बहुत बड़ा होता है। अतः प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ मनः पयर्यज्ञान संभव नहीं । परन्तु यदि कोई मन:पर्ययज्ञानी मुनि महाराज द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर उपशम श्रेणी आरोहण करते हैं, उनके मन:पर्ययज्ञान एवं द्वितीयोपशम सम्यक्त्व एक साथ संभव है । इसका विशेष वर्णन श्री धवला पु.2, पृष्ठ 728-729 पर देखा जा सकता है ।
समाधान - कृतकृत्यवेदी क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव, यदि पूर्व में आयु बंध कर चुका है तो मरण कर
'प्रश्न - क्या सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के साथ चारों गति में जा सकता है को प्राप्त होते हैं ? और उसके अपर्याप्त अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है।
प्रश्नकर्ता - सौ. ज्योति लुहाड़े, कोपरगाँव जिज्ञासा - क्षयोपशम सम्यक्त्व अपर्याप्त अवस्था में, किस गति से किस गति में जाने पर पाया जाता है ?
सामान्य क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि नारकी हो तो मनुष्य बनने पर, तिर्यंच हो तो देव बनने पर, मनुष्य हो तो देव बनने पर तथा देव हो तो मनुष्य बनने पर अपर्याप्त अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के धारी रहते हैं, अन्य में नहीं ।
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आगरा - 282002
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