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________________ यह जीव मनुष्य, देव, तिर्यंच और नरक योनि रूप | 5. स्वाहा - (सु + आ + ह्वे) हे धातु आह्वान करने, चातुर्गतिक लोक में भ्रमण करता है। स्वस्तिक की रचना | प्रार्थना करने, निमन्त्रित करने के अर्थ में हैं। सामान्यतः इसी अवस्था को बतलाती है। जिस प्रकार राष्ट और विभिन्न | इष्टदेवता के उद्देश्य से हवि हवन सामग्री अर्पण करने के दलों के ध्वज अपने-अपने मुख्य उद्देश्यों को अपने चिह्नों | लिये स्वाहा का प्रयोग होता है। किन्तु यह वैदिकी मान्यता द्वारा प्रकट करते हैं। यह स्वस्तिक भी जीव की अवस्थाओं | है। जैसे मान्यता में इष्टदेव वीतरागी भगवान् हैं, अतः वे और कर्तव्यों को व्यक्त करता है। इसकी रचना में स्वस्तिक किसी भी परपदार्थ का ग्रहण नहीं करते हैं। तब फिर यहाँ की चारों दिशाओं में जाने वाली रेखाएँ चारों गतियों (जिनमें स्वाहा का अर्थ एवं प्रसंगिता क्या है? यह एक विचारणीय जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मरण करता फिर रहा है) | विषय है। गवेषणा करने पर यह ज्ञात होता है कि भगवती का निर्देश करती हैं। आराधनाकार ने स्वाहा शब्द को मन्त्र एवं विद्या के मध्य का प्रारम्भ कार्यों में विघ्न निवारण के लिये मंगल किया | सीमांकन मानते हुए कहा है कि बीजाक्षर युक्त जिस वाक्य जाता है। स्वस्तिक के नंद्यावर्त प्रमुख कार्य किये हैं। भरत | या वाक्यांश के अन्त में स्वाहा का प्रयोग होता है, उसे विद्या जैसे चक्रवर्ती ने भी दिग्विजय के बाद शिला परअपना नाम | कहते हैं, तथा स्वाहा पद का प्रयोग नहीं होने पर वही मन्त्र लिखने में भी स्वस्ति का प्रयोग किया है। कहलाता है। स्वस्तीक्ष्वाकुलकुलव्योमतल प्रालेयदीधितिः। लोक प्रचलित इस शब्द का अर्थ है अपने हाथों से चातुरन्त महीभर्ता भरतः शातमातुरः॥ नष्ट करना या समाप्त कर देना। तो यहाँ पर भी आध्यात्मिक (आदिपुराण 32/146) सुख-शांति पाने के लिये भौतिक संसाधनों एवं अपने लिये तीर्थंकरों के शरीर सम्बन्धी 108 लक्षणों में भी स्वस्तिक | संग्रहित पदार्थों की मूर्छा ममत्व भाव को नष्ट करने अथवा एक शुभ चिह्न माना गया है। समाप्त करने की भावना से स्वाहा का उच्चारण अर्थ संगत तानि श्री वृक्ष शंखाब्ज स्वस्तिकांकुशतोरणम्। प्रतीत होता है अर्थात् मैं जल से फल तक जो वैभव अपने आदिपुराण 15/37 भौतिक सुख संसाधनों रूप में संजोता आया उसके प्रति मेरा मंगल, सुख, शान्ति व कल्याण के लिये, चारों मंगलों, | ममत्व भाव है, उस ममत्व भाव को मैं भगवान् की साक्षीपूर्वक . उत्तमों, शरणों का आसरा लिया जाता है । गृहस्थाचार सम्बन्धी स्वाहा करने का संकल्प लेता हूँ। क्योंकि परिग्रह की चाह कार्यों में जो यंत्र पूजा-विधानादि में स्थापित किए जाते हैं. | मन मे रहते हुए वीतरागी भगवान् का गुणस्तवन मन से उन यंत्रों विनायक यंत्र, शन्तिविधान यंत्र, शान्ति यंत्र, चत्तारि | संभव ही नहीं है। इसका एक अर्थ यह भी है कि किसी भी मंगल पाठ लिखा होता है, इन सबसे यही सिद्ध होता है कि | द्रव्य को समर्पित किये जाते समय बोला जाने वाला शब्द। स्वस्तिक इसी पाठ का प्रतिनिधि होना चाहिए। यह अर्थ भी उपयुक्त लगता है। ये स्वस्तिक चिह्न जैन धर्म का प्रमुख चिह्न है, प्रत्येक 6. वषट् - किसी देवता को आहुति देते समय शुभ कार्य में इसका अंकन परम आवश्यक और अनिवार्य | उच्चारण किया जाने वाला शब्द। इसका उपयोग आकर्षण, धर्म का अंग है। जैन ग्रन्थों, जैन मन्दिरों, जैन ध्वजों, जैन | शिखाबीज, आवाहन के निमित्त होता है। पूजा और जैन गृह द्वारों आदि में सहज ही प्रयोग देखा जाता 7. संवौषट् - वश्यम्, जीतने का उपाय, जय उपकरण 4. निर्वपामीति - जल से लेकर फल तक प्रत्येक 8. आहुति - (आ + हु + क्तिन्) - आह्वान करना वस्तु को अर्पित करते समय इस शब्द का प्रयोग किया जाता | पुण्यकृत्यों के उपलक्ष्य में किये जाने वाले विधान (यज्ञ) है। यह निर् उपसर्गपूर्वक व धातु का वर्तमान काल लट्लकार आदि में हवन सामग्री हवन कुण्ड में डालना । (आ + ह्वे + उत्तम पुरुष एकवचन का रूप है। इसका सामान्यतः अर्थ | क्तिन) अथवा किसी देवता विशेष को उद्दिष्ट करके दी गई किया जाता है, भेंट करता हूँ, अर्पित करता हूँ, चढ़ाता हूँ, | आहुति (हवन सामग्री पूजन सामग्री) देवता विशेष को बिना मन, वचन, काय से अष्ट द्रव्य चढ़ाना, समर्पित करना। | किसी प्रचार (इच्छा) के दी जाने वाली आहुति । इसका अभिप्राय है कि पूजन अपने दुष्कर्मों का (जिससे | 9. जयमाला - पूजा के अन्त में पूजा की विषयसंसार बढ़ता है) समूलक्ष्य (नष्ट) करने के लिये मन, वचन, | वस्तु को साररूप में प्रस्तुत करने वाला ज्ञेय भाग, जो कि काय पूर्वक (सम्पूर्ण रूप से) अष्ट द्रव्य समर्पित करता हूँ। | प्रायः प्राकृत, अपभ्रंश या हिन्दी में होता है तथा मूलपूजा -अप्रैल 2005 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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