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________________ ये तीन गुण पाए जाते हैं। इनमें सात्विक गुण प्राकृतिक अग्निहोम के फल के समान फल प्राप्त होता है और सदैव होता है। जबकि राजस और तामस वैकृतिक या वैभाविक | सूर्यास्त के बाद भोजन न करने वाला घर बैठे ही समस्त परिणति वाले माने गये हैं। दिन में भोजन करने से प्राकृतिक तीर्थयात्राओं का फल प्राप्त करता है। सात्विक गुण की वृद्धि होती है। जिससे पुरुष में ज्ञान, 5. योग वशिष्ठ के पूर्वार्द्ध श्लोक में लिखा है कि जो बुद्धि, मेधा, स्मृति, धृति आदि गुणों का विकास होता है रात्रि के समय भोजन नहीं करता विशेष रूप से चौमासे में तथा रात्रि में भोजन करने से तामस गुणों की वृद्धि होती है नहीं करता उसकी सभी इच्छाएं इसलोक और परलोक में जिससे व्यक्ति के अंदर विषाद, अधर्म, अज्ञान, आलस्य पूर्ण हो जाती हैं। और राक्षसी वृत्ति का जन्म होता है। रात्रि में खाया हुआ भोजन तामसी परिणामों का दाता होता है। नक्तं न भोज्येद्यस्तु चातुर्मास्ये विशेषतः। सर्वकामानवाप्नोति हीहलोके परत्र च। 108 ।। वैदिक और वैष्णव धर्म में रात्रिभोजन निषेध 6. रात्रिभोजन निषेध के साथ-साथ मनुस्मृति में जल छानकर 1. जो मद्य पीते हैं, मांस भक्षण करते हैं, रात्रि के | पीना बताकर इन चार बातों को करणीय माना हैसमय भोजन करते हैं तथा कंद भोजन करते हैं, उनके दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत्। तीर्थयात्रा करना, जप-तप करना, एकादशी करना, जागरण सत्य पूतं वदेद्वाक्यं, मनः पूतं समाचरेत् ॥ करना, पुष्कर स्नान या चंद्रायण व्रत रखना आदि सब व्यर्थ (मनुस्मृति) है। वर्षाकाल के चार मास में तो रात्रिभोजन करना ही नहीं चाहिए। अन्यथा सैकड़ों चंद्रायण व्रत करने पर भी शुद्धि इसी प्रकार अरण्यपुराण वैदिक शास्त्र में रात्रि भोजन नहीं होती है। (ऋषीश्वर भारत वैदिक दर्शन) को मांस भक्षण के तुल्य माना है। उपसंहार 2. वैदिक ग्रंथ यजुर्वेद आहिक में लिखा है बुंदेलखंड में "अन्थउ' शब्द का प्रयोग सूर्यास्त के पूर्वाह्ने भुज्यते देवैर्मध्यान्हे ऋषिभिस्तथा। पूर्व भोजन करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह अपराह्ने च पितृभिः सायाह्ने दैत्य दानवैः ॥24॥ | अणथम शब्द का अपभ्रंश है। जिसका अर्थ है अनस्तमित स्वर्गवासी देवों का भोजन प्रात:काल, ऋषिगण मध्यान्ह | या रात्रि भोजन का त्याग। अमितगति श्रावकाचार में लिखा में और पितृगण दिन के तीसरे पहर अपरान्ह में भोजन | है दिन के आदि और अंत दो-दो घडी समय को छोडकर करते हैं, जबकि राक्षस और दैत्य जन रात के समय भोजन जो भोजन निर्मल सूर्य के प्रकाश में निराकुल होकर करते किया करते हैं। हैं वे मोहांधकार को नाश कर आर्हन्त्य पद पाते हैं। रात्रि संध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तकुलोद्वह। में भोजन त्याग से आधा जन्म उपवास में व्यतीत होता है। सर्वबेलामतिक्रम्य रात्रौ भुक्तभोजनम्॥19॥ जो रात्रि भोजन निवृत्ति रूप नियम न लेकर, दिन में ही भोजन करते हैं उन्हें यद्यपि कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता 3. मार्कण्डेय पुराण में स्पष्ट रूप से सूर्य के अस्त हो पर वे भावी जन्म दिवा भोजी कुल में पा सकते है। जो जाने पर पानी पीना रूधिर पीने के समान और अन्न खाना अज्ञानी पुरुष रात्रिभोजन जीवों के लिए सुखदायी कहते मांस खाने के समान बताया गया है। हैं, मानो वे अग्निशिखाओं के मध्य जलते हुए वन में अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते। फलों की आशा रखते हैं। जो लोग पुण्यकारी दिन के अन्नं मासं समं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा॥ भोजन और पापपूर्ण रात्रिभोजन को समान कहते हैं वे (अध्याय 33, श्लोक 53) प्रकाश और अंधकार को समान कोटि में परिगणित करते 4. स्कंधपुराण के अध्याय सात में दिन में भोजन हैं। जो पुण्य की आकांक्षा से दिन में उपवास रखकर रात्रि करने वाले पुरुष को विशेष पुण्य का भोग्य बताया गया में भोजन करते हैं वे फल देने वाली लता को मानो भस्म कर रहे हैं। एक भक्ताशनान्नित्यमग्निहोत्रफलं भवेत्। अहिंसाव्रत रक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये। अनस्तभोजिनो नित्यं तीर्थयात्राफलं भजेत्॥ निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम्॥ अर्थात् जो दिन में एक बार भोजन करता है, उसे । उपासकाध्ययन 14 जनवरी 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524293
Book TitleJinabhashita 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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