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________________ रजि नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 विश्वधर्म की आधारशिला अहिंसा 0 मुनि श्री आर्जवसागर जी संसार के धर्म नाम से कहे जाने वाले जितने भी संप्रदाय हैं, उन सभी में अहिंसा की प्रमुखता है। इस दृष्टि से सभी धर्मों में समानता ठहरती है / अहिंसा को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, जैसे दया, अनुकंपा, अभयदान, वात्सल्य, करुणा, रहम, परोपकार, उपग्रह, क्षमा और जीवरक्षण इत्यादि। इन शब्दों में बाह्य दृष्टि से कुछ भेद होते हुए भी सभी का अंतरंग समान है, सभी का भाव जीवों को कष्ट से बचाकर सुख प्रदान करना है। अहिंसा, धर्म का प्राण है / जैसे प्राण के बिना प्राणी का जीवन नहीं, नींव के बिना इमारत नहीं और जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहर सकता, वैसे ही अहिंसा, दया के बिना धर्म रूपी महल या वृक्ष नहीं ठहर सकता, अतः आचार्यों की, महापुरुषों की उद्घोष पूर्ण वाणी है : 'धर्मस्य मूलं दया', 'धम्मो दया विशुद्धो। 'दया धर्म का मूल है, धर्म दया से विशुद्ध है, अतएव जहाँ अहिंसा या दया नहीं वहाँ धर्म की शुरुआत ही नहीं, अहिंसा के बिना धर्म का कथन कागजपुष्प के समान धर्म शब्द की नकल मात्र है।अतः निष्कर्ष यही है कि अहिंसा परमो धर्मः', अहिंसा ही उत्कृष्ट धर्म है। कथनी करनी एक समान। हमारे पूर्वज महापुरुषों ने जैसा कथन किया है, वैसा ही धर्मानुसार आचारण भी किया है। रामायण में भी कहा गया है कि वे रघुवंशी (राम) कभी मांस सेवन नहीं करते और न ही मधु(शहद) का सेवन करते हैं। वे तो शुद्ध शाकाहार करते हुए जंगल में विचरण करते हैं। धन्य ऐसा महापुरुषों का जीवन जो मांस खाना तो दूर, घास पर चलने में तथा ऐसे वचनों में भी हिंसा समझते हैं, जिनसे किसी के मन को कष्ट पहुंचे। वे मुनिमार्ग में ध्यान की प्रसिद्धि हेतु एवं सब तरह की आशाओं की शांति के लिए वस्त्रों का भी त्याग कर देते हैं। इन्हीं महापुरुषों, मुनियों के जीवन को देखकर हमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप महान त्यागभावों से उत्तम सीख लेकर अपनी आत्मा को परिशुद्ध बनाना चाहिए। राम, ईश्वर आदि महानात्माओं का नाम लेने वालों के मुख से मांस (अंडा, मछली आदि) का सेवन या जिस मुखसे मांस का सेवन उसी अपवित्र मुख से भगवान के नाम लेने में क्या शोभा है? क्या ऐसा करने से अहिंसक देवता प्रसन्न होंगे? इसका उत्तर 'नहीं' ही मिलेगा। इस प्रकार सद्गति का भागी बनने हेतु अहिंसाधर्म के साथ अपनी कथनी करनी एक होना आवश्यक है। दूसरी दृष्टि से देखा जाए तोशाकाहार ही सबसे अधिक शक्तिशाली एवं सद्भावनाओं का उद्भावक है। लेकिन जिन लोगों की मांसाहार के प्रति ऐसी धारणा है कि इसमें शक्ति अधिक पायी जाती है, तो उन्हें सोचना चाहिए कि बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथी, घोड़ा, गाय आदि का भोजन क्या है? वे केवल शुद्ध शाकाहारी हैं। उन्हें केवल पत्तियों और घास का आहार पर्याप्त होता है। उनका जीवन उसी से चलता है। जैसे वजन को उठाने में अन्य प्राणी सक्षम नहीं। घोड़े जैसी दौड़ में अन्य प्राणी सक्षम नहीं।मोटर की शक्ति की तुलना घोड़े की शक्ति से(हार्स पावरसे)ही करते हैं, सिंह आदि की शक्ति से नहीं। ऐसे उन हाथी, घोड़े आदिक में ऐसी अद्भुत शक्ति कहाँ से आती है, तो मात्र शाकाहार से आती है। केवल पत्ती और घास खाने मात्र से ही जिनकाशक्तिपूर्ण जीवन हो सकता है, तो क्या मनुष्य के लिए तरह-तरह के फल, सब्जी, धान्य, मेवा, आदिक से भरपूर शक्ति नहीं मिल सकती? अवश्य मिल सकती है, लेकिन फिर भी मांसाहार किया जाना केवल आनार्यपने के साथ जिह्वा की लोलुपता या तामसिक वृत्ति काही परिचायक है। उसके साथ शुद्ध धार्मिक विचार कैसे आ सकते हैं? एवं पवित्र ध्यान की प्राप्ति कैसे हो सकती है? और अपने जीवन के लिए अपनी आत्मा जैसी सुखदुःख संवेदना के धारक दूसरे जीवों के जीवन को समाप्त कर प्राणी इहपरलोक में सुख से कैसे रह सकते हैं? कभी नहीं। इसके अलावा जब मांसाहारी जीवों से मनुष्य की शारीरिक रचना (दांत, नख, आंत, पूँछ आदि बिना) ही अलग है, तब कैसे मांसाहार मनुष्य के योग्य हो सकता है? किसी तरह भी नहीं। अंडा भी शाकाहार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नर-मादा का रजवीर्य जिसमें हो तथा जिसके अंदर पंचेन्द्रिय जीव की उत्पत्ति हो, ऐसा अंडा कैसे शाकाहारी हो सकता है ? किसी तरह भी नहीं। और भी करुणा की दृष्टि से विचार करें, तो एक माँ अपने बच्चे के पैदा होने के पहले से ही भावना भाती है कि पैदा होने के बाद हम उसे प्यार से पालें पोसेंगे, लेकिन अंडे का सेवन कर उसके बाहर आने के पहले ही उसे समाप्त कर दिया जाए, तो उस माँ की हालत क्या होगी? दुःखकापार नहीं रहेगा, चाहे वह अंडे की माँ होया बच्चे की। स्वामी, प्रकाश एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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