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________________ भारतीय मनीषा ने तत्त्व ज्ञान का अधिकारी उसे ही ठहराया है | ही यज्ञ का वास्तविक रूप मान लिया गया था। जिसे सम्पूर्ण वेदों का अर्थज्ञान प्राप्त हो, जिसका अन्त:करण काम्य यह भ्रांति सम्भवतः इस कारण से उत्पन्न हुई होगी कि एवं निषिद्ध कर्मों के पारित्यागपूर्वक नित्य-नैमित्तिक, प्रायश्चित | यज् धातु का अर्थ है यज्ञ करना अथवा त्यागपूर्वक पूजा करना। तथा उपासना कर्मों के द्वारा निष्कलुष हो गया हो, तथा जो यजमान से यह अपेक्षित था, कि वह यज्ञ में सम्यक् रूप से नित्यानित्यवस्तुविवेकादि साधन चतुष्टय से सम्पन्न हो। (३) तत्त्व दीक्षित हो तथा अपने दूषणों से मुक्त होकर यज्ञ कार्य में प्रवृत हो। ज्ञान के अधिकारी के लक्षण विवेचन के अंतर्गत उसका निषिद्ध इसके लिए उससे अपने भीतर के पशुत्व का परित्याग करना कर्मों से पूर्णत: मुक्त होना अनिवार्य तत्त्व माना गया है। इसका अपेक्षित था। संभव है, इस महनीय अर्थ की व्यंजना को उस युग तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान के अधिकारी के लिए किसी भी प्रकार में ओझल कर दिया गया हो, और केवल उसके रूढ़िगत पक्ष को के हिंसा कर्म से निर्लिप्त होना अपरिहार्य है। यह तथ्य आत्मतत्त्व ही अपना लिया गया हो। इस प्रकार समाज में भीतर के पशुत्व के जिज्ञासु के लिए अहिंसाचरण को दृढ़तापूर्वक रेखांकित करता को त्यागने के स्थान पर बाहर के पश की बलि दी जाने लगी। है। तत्त्वज्ञान के अधिकारी की पात्रता का विवेचन भी उसके और यज्ञ में अहिंसा के स्थान पर हिंसा का प्रवेश हो गया। यह जीवन में अहिंसा की अनिवार्यता की पुष्टि करता है एवं हिंसाकर्म | प्रवृत्ति जब देश की आचार पद्धति में गहरी पैठ करती प्रतीत हुई, का निषेध करता है। तो विचारकों को सोचने के लिए बाध्य होना पड़ा और आरण्यक बृहदारण्यक उपनिषद् में अश्वमेधयज्ञ चर्चा के प्रसंग में | युग से लेकर महावीर बुद्ध के युग तक निरंतर वैचारिक संघर्ष उषा की आराधना का उल्लेख है। वहाँ बतलाया गया है कि उषा चला। हिंसाकर्म की चारों ओर निन्दा होने लगी और अहिंसा के की आराधना अश्व के शिर के रूप में की जानी चाहिए। सूर्य की | वातावरण की सृष्टि हुई। उसकी आँख के रूप में एवं वायु की उसके प्राण के रूप में। (4) आर्ष वाङ्मय में वाल्मीकि रामायण का स्थान सर्वप्रथम ऐसी आराधना बिना यज्ञ किये ही अश्वमेधयाग का फल प्रदान है। इसे आर्ष काव्य भी कहते हैं। इस काव्य का आधार ही करती है। बृहदारण्यक उपनिषद् में प्रस्तुत उषा की आराधना से अहिंसा भावना है। आदिकवि वाल्मीकि ने तमसा के तट पर एक हिंसा को स्पष्ट रूप से नकारा गया है। यज्ञ अनुष्ठानादि के विरुद्ध | व्याध को प्रणयासक्त क्रौञ्चयुगल में से नर विहंग को शराहत करते क्रांति ने ही उपनिषद् विद्या को प्रतिष्ठित किया है। देखा, तो वे तत्काल दयाद्रवित हो गये एवं क्रूर व्याध के इस हिंसा वेदाङ्ग वाङ्मय में वैदिक शब्दों के निर्वचन की दृष्टि से | रूप कुत्सित कर्म की अत्यंत कठोर शब्दों में उन्होंने निंदा की। (6) निरुक्त शास्त्र का विशिष्ट महत्व है। निर्वचन के क्षेत्र में निरुक्तकार रामायण काव्य में महर्षि ने अहिंसा की भावना को प्रमुख रूप से महर्षि यास्क का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका समय ई.पू. उजागर किया है। सातवीं शती माना गया है। अपने ग्रंथ में अध्वर शब्द का निर्वचन वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में एक प्रसंग आता प्रस्तुत करते हए वे कहते हैं अध्वर इति यजनाम। ध्वरति: हिंसा | है, जहाँ सीता अपने पति श्री राम को हिंसाकर्म से विरत होने के कर्मा तत्प्रतिषेधः। 5) महर्षि यास्क ने स्पष्ट रूप से उद्घोष किया | लिए आग्रह करती हैं। श्रीराम से वे कहती हैं, कि "आपने है कि, यज्ञ वह उपक्रम हैं, जहाँ हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं दण्डकारण्यवासी ऋषियों की रक्षा के लिए राक्षसों का वध करने है। प्रत्युत उसका वहाँ पूर्ण निषेध है। यज्ञ शब्द के लोक प्रचलित की प्रतिज्ञा की है। आपको इस घोर कर्म के लिए प्रस्थित हुआ अर्थ के विपरीत निरुक्तकार के द्वारा यज्ञ शब्द की इस प्रकार की | देख मेरा मन व्याकुल हो उठा है। क्योंकि परहिंसा रूप कर्म मौलिक व्याख्या किया जाना निश्चित ही उनके क्रांतिकारी अहिंसा | भयंकर होता है। राजा के लए यह कर्म भले ही न्याय संगत हो. प्रधान चिन्तन का परिचायक है। किन्तु आप तो सम्प्रति तापसवृतिधारण किये हुए हैं। " इस आधार यास्क के पश्चात ई.प. छठवीं शताब्दी में इस देश में श्रमण | पर सीता श्रीराम से राक्षस वध रूप हिंसाकर्म से विरत होने एवं संस्कृति का उदय होता है। श्रमण संस्कृति में यज्ञ कर्म का पूर्ण अहिंसाचरण करने का अनुरोध करती हैं तथा तपोवन में वानप्रस्थोचित बहिष्कार है। भगवान् महावीर और बुद्ध ने तो यज्ञाचार की प्रभूत नियमों का पालन करते हुए जीवन यापन करने का उनसे आग्रह रूप से आलोचना की तथा उसे सर्वथा अनुपादेय ठहराया। यज्ञ करती हैं।(7) सीता के द्वारा अहिंसा का समर्थन कराकर आदिकवि शब्द के प्रचलित अर्थ से हटकर वैदिककाल से लेकर महावीर | ने अहिंसा के प्रति अपनी प्रगाढ़ आस्था को आविष्कृत किया है। और बुद्ध के युग तक बार-बार इस प्रकार की व्याख्या प्रस्तुत अयोध्याकाण्ड में बालिमुनि के साथ वार्तालाप प्रसंग में करने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि यज्ञ शब्द सम्भवतः | | श्रीराम के द्वारा भी अहिंसा की प्रशंसा की गयी है। वे कहते हैं अपने मूल अर्थ से हटता हुआ प्रतीत हो रहा था और केवल | कि, "जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते हैं, तेज से बाहयाडम्बर पर्ण अपने रूढ अर्थ में उलझकर रह गया था. जिसमें | सम्पन्न हैं, जिनमें दान रूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी आलम्भन पक्ष / बलिकर्म पर ही बल दिया जा रहा था और इसे / प्राणी का वध नहीं करते तथा जो मल संसर्ग से रहित हैं ऐसे 10 नवम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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