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________________ संस्कृत वाङ्मय में अहिंसा की अवधारणा डॉ.रामकृष्ण सराफ डॉ. रामकृष्ण जी सराफ संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। आप भोपाल के शा. हमीदिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों में आपकी गहरी पैठ है। जैनधर्म, दर्शन और संस्कृति से आप बाल्यकाल से ही जुड़े रहे हैं। अतः अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे जैन सिद्धान्तों के आप मर्मज्ञ हैं। प्रस्तुत आलेख में आपने जैन-जैनेतर संस्कृत वाङ्मय में अहिंसा की अवधारणा का शोधपरक अनुशीलन किया है, जो पाठकों के ज्ञान में अनायास अभिवृद्धि करेगा। सम्पादक इतिहास एवं साहित्य दोनों इसके साक्षी हैं, कि मानवता | और पंचजन अदिति हैं। सारे उत्पन्न पदार्थ अदिति हैं और भावी की संरक्षा और उसके विकास में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों | पदार्थ भी अदिति हैं। मंत्र में अदिति को संसार मात्र कहा गया है। की सदैव सर्वोच्च प्रतिष्ठा रही है। जब-जब मानवता और मानवीय | भूतकाल की समस्त वस्तुएँ अदिति हैं और आगे होने वाली मूल्यों के अस्तित्व पर प्रहार हुआ है और मानव सभ्यता के पैर | वस्तुएँ भी अदिति हैं । ऋग्वेद का यह मंत्र सर्वेश्वरवाद का आदर्श लड़खड़ाये, तब-तब उसकी रक्षा हेतु हर समय भूतल पर किसी | उपस्थित करता है। भारत की नैतिकता का मूल ही सर्वेश्वरवाद न किसी आध्यात्मिक धार्मिक प्रेरणापुंज का अभ्युदय अवश्य हुआ | है। सभी प्राणियों में पेड़-पौधों में तथा अन्य सभी पदार्थों में है। मर्यादा पुरूषोतम राम, कर्मयोगी कृष्ण, अहिंसावतार भगवान् | अदिति की सत्ता स्वीकारने से अहिंसा की भावना का उदय होता महावीर, सम्यक् सम्बुद्ध गौतम बुद्ध सभी ने अपने-अपने युग में | है। वैदिक ऋषि ने सृष्टि में एक तत्व के सर्वव्याप्त होने का संदेश अवतरित होकर युग के अनुसार अधर्म प्रतिकार, कर्त्तव्याचार, | दिया है, जो अपने अनेक रूपों में विद्यमान है। इस प्रकार अहिंसा करुणा, विश्वशांति, विश्वबन्धुत्व एवं विभिन्न प्राणियों के बीच | की भावना का संकेत हमें ऋग्वेद में मिल जाता है। प्रेम, सहिष्णुता तथा सह अस्तित्व जियो और जीने दो का दिव्य ऋग्वेद के ही दशम मण्डल में यज्ञ शब्द का प्रभूत प्रयोग संदेश संसार को दिया है। मिलता है। यहाँ यज्ञ शब्द पूजा अथवा पवित्र के ही अर्थ में आया विश्वशांति, विश्वबन्धुत्व तथा विश्व के विभिन्न जीवधारियों | है। ऋषि ने उक्त सूक्त में मानसी कल्पना के द्वारा सृष्टि यज्ञ का के बीच सहिष्णुता और सह अस्तित्व की भावना बिना अहिंसा के स्वरूप प्रस्तुत किया है। जिसमें सृष्टि के विभिन्न पदार्थों का उत्पन्न संभव नहीं है। अहिंसा की भावना भारत देश के लिए कोई नवीन | होना बतलाया गया है। यहाँ भौतिक यज्ञ के स्थान पर आध्यात्मिक परिकल्पना नहीं है, प्रत्युत इसकी जड़ें तो इस देश में अत्यंत | यज्ञ की प्रतिष्ठा निरूपित हुई है, जिसमें किसी भी प्रकार की हिंसा गहरी हैं। हमारी संवेदनशीलता जगत में विख्यात है। अहिंसा का अथवा बलि के लिए कोई स्थान नहीं है। आदर्श भारत के समक्ष वैदिक काल से ही रहा है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में ही सूक्त संख्या 134 के मंत्र अहिंसा की उदात्त अवधारणा को निखिल संस्कृत वाङ्मय | संख्या सात में ऋषि का वचन है, हे देवो न तो हम हिंसा करते हैं, में न केवल सम्यक् समादर प्राप्त है, प्रत्युत जीवन में उसे आत्मसात् | न विद्वेष करते हैं, अपितु वेद के अनुसार आचरण करते हैं तिनके करने की प्रवृत्ति भी परिलक्षित होती है। अहिंसा की यह पवित्र | जैसे तुच्छ प्राणियों के साथ भी मिलकर कार्य करते हैं। (2) वेदों में भावना वैदिक साहित्य तथा लौकिक संस्कृत साहित्य-दोनों में | सर्वत्र ही हिंसा कर्म की निन्दा की गयी है एवं अहिंसाचरण को समान रूप से समुपलब्ध है कहीं स्पष्ट रूप से तो कहीं सांकेतिक | प्रशस्त ठहराया गया है। वैदिक वाङ्मय अहिंसा एवं लोक कल्याण रूप में। की उदात भावना से ओतप्रोत है। मा हिंस्यात् सर्वभूतानि यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में निम्नांकित मंत्र आता है:- वेदों का स्पष्ट आदेश है। अदितिधौरदितिरन्तरिक्ष, ब्राह्मण ग्रंथों में भले ही यज्ञ-यागों का विधान हो, किन्तु मदितिर्माता स पिता स पुत्रः। परवर्ती आरण्यक वाङ्मय से यज्ञ यागों के प्रति विरक्ति के संकेत विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना, मिलने लगते हैं। आरण्यकों का प्रतिपाद्य विषय यज्ञ नहीं प्रत्युत अदितिजातमदितिर्जनित्वम्॥(1) यज्ञ - यागों के भीतर विद्यमान आध्यात्मिक तथ्यों की मीमांसा ___ मंत्र में ऋषि का वचन है, कि अदिति स्वर्ग है, अदिति | है। इसी का पूर्ण विकास उपनिषदों में मिलता है। भारतीय तत्त्व अंतरिक्ष है, अदिति माता है, वह पिता है, वह पुत्र है। सारे देवता | ज्ञान का मूल स्त्रोत होने का गौरव उपनिषदों को ही प्राप्त है। नवम्बर 2004 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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