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संयमासंयम औदयिक भाव नहीं
मुनि निर्णयसागर जी संयमी जब चर्चा करता है, तो उसकी चर्चा सत्य | भाव कैसे है? तो उत्तर दिया गया संयमासंयम प्रत्याख्यानावरण महाव्रत और भाषा समिति से युक्त हुआ करती है। संयमी | चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) के उदय से होता है। असत्य से परे रहकर हित-मित-प्रिय शब्दों में अपनी बात | जैसा कि पूर्व में हमने कहा था, असंयमी कुछ भी कह श्रोताओं के सामने रखता है । उसे आगम और गुरु की मात्रा | सका है, उसके न झूठ का क्या होता है और न ही, भाम, कहीं उल्लंघन न हो जाये, इस बात का सदैव भय रहता है। समिति का नियम। दूसरी बात "किसी का हाथ पकड़ा जा अर्थात् पाप भीरू होता है। संयमी, पूर्व आचार्यों एवं सच्चे | सकता है, मुँह नहीं।" यह कहावत यहाँ चरितार्थ होती शास्त्रों का अवलंबन लेकर, अपनी चर्चा को आदि से | दिखाई दे रही है। साथ में सिद्धांत के स्थूल ज्ञान का अभाव प्रारंभ कर, अंत तक चलता है। जबकि एक असंयमी, | भी दृष्टिगोचर होता है। जिसका न सत्य व्रत होता है, न ही भाषा समिति। कभी भी
यदि संयमासंयम प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के उदय से ही अपने सांसारिक स्वार्थवश किसी के भी साथ कुछ भी शब्द
होता है, तो नीचे भी प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का उदय प्रयोग कर सकता है। असंयमी का कोई भरोसा नहीं हो
पाया जाता है। वहाँ पर भी संयमासंयम भाव होना चाहिए। सकता है, किन्तु सभी असंयमी समान नहीं हुआ करते हैं।
तभी सही न्याय माना जाएगा। तभी यह संयमासंयम का अपितु वह भी पाक्षिक श्रावक हो सकते हैं आज्ञा सम्यक्त्वी
लक्षण बन पायेगा। अन्यथा अन्याय होगा, साथ में अव्याप्ति हो सकते हैं । उनको भी देव, शास्त्र और गुरु की आज्ञा भंग
नामक सदोष लक्षण होगा। तथा संयमासंयम को कहने का भय हो सकता है। इसलिए यहां उन असंयमी की बात
वाला वक्ता सुधी श्रोता श्रावकों की दृष्टि में हास्य का पात्र नहीं की जा रही है, जो देवशास्त्रगुरु के आज्ञापालक हैं,
बनेगा। यह तो हुआ न्याय और युक्ति का विषय। अब अर्थात् सम्यक्दृष्टि हैं। मैं तो उन चंद शास्त्र पढ़ने वालों की
थोड़ा उस ओर भी दृष्टि ले चलते हैं जहां पूर्व आचार्यों ने बात कर रहा हूँ, जो अपने आपको सम्यक्दृष्टि मानते हैं।
संयमासंयम के संबंध में जिनेन्द्र आज्ञानुसार कुछ कहा है। स्वयं को आगम के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य का जानने वाला
ऐसे षट्खंडागम, गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि महान शास्त्रों मानते हैं। जिनकी दृष्टि में हर साधु द्रव्य लिंगी ही दिखाई
में संयमासंयम को क्षयोपशम भाव ही कहा, न कि औदयिक देता है। जबकि पंचमकाल में पंचमकाल के अंत तक
भाव। तत्त्वार्थसूत्र में पूज्याचार्य उमास्वामी जी कहते हैंचतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) के अस्तित्व | का स्पष्ट उल्लेख है। यहाँ मुनि का अभिप्राय भावलिंगी।
ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुरित्रिपञ्चभेदा:
सम्यक्त्वचारित्र संयमासंयमाश्च॥5॥ अध्याय-2॥ मुनि से ही है। किन्तु इतना अवश्य है कि वर्तमान में शिथिलाचारी त्यागी व्रती का बाहुल्य तो दिख रहा है, परंतु आगम में सर्वत्र जीव के पाँच प्रकार के असाधारण सभी शिथिलाचारी (पथभ्रष्ट त्यागी) नहीं हो सकते हैं। भाव कहे हैं। असाधारण इसलिए कि वह जीव में ही पाये अन्यथा आगम का उल्लेख सत्य सिद्ध नहीं होगा। वास्तव जाते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। औपशमिक. क्षायिक. में साधु का दिखाई तो द्रव्य लिंग ही देता है। वह असंयमी क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन्हीं पाँच भावों लोग द्रव्य लिंग को देखकर यह कैसे देख लेते हैं कि इनके | के उत्तर भेद क्रमश: 2, 9,18, 21, 3 इस प्रकार 53 भाव भावलिंग का नियमतः अभाव है। जबकि भावलिंग प्रत्यक्ष कुल मिलाकर होते हैं। ज्ञानी का विषय बनता है। दर्शनार्थी को तो चरणानुयोग की चर्चा के प्रसंग में भावों की परिभाषा बनाकर चलना दृष्टि से ही साधु को नापना चाहिए। यदि आरंभ परिग्रह
उचित होगा। परिभाषा के अभाव में किसी भी बिन्दु पर नहीं है, तो वह साधु है। किन्तु, अपने को सम्यक्दृष्टि
चर्चा सार्थक नहीं होती है। मानने वाले यह भी नहीं जानते, कि साधु के लिये श्रावक कैसे परीक्षा करे, कैसे देखे, चरणानुयोग अनुसार देखना
1. जो भाव कर्मों के उपशम से प्रकट होते हैं, वह चाहिए अथवा करणानुयोग के अनुसार? इस प्रकार के
औपशमिक भाव कहलाते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व, चारित्र। व्यक्तियों की ही ये धारणा है कि संयमासंयम औदयिक | 2. जो भाव कर्मों के क्षय से उत्पन्न होते हैं, वह
सितम्बर 2004 जिनभाषित 7
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