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________________ मनोचिकित्सा विज्ञान के सिद्ध प्रयोग क्षमा धर्म ही नहीं, दवा भी है डॉ. प्रेमचन्द्र जैन स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में 'धर्म' की परिभाषा इस | सामाजिक, आर्थिक आदि समस्त मुसीबतों का वाहक है। प्रकार दी गई है : आत्मानुशासन में कहा गया है "क्रोधोदयाद् भवति कस्य "धम्मो वत्थु-सहावो, खमादि-भावो यदस-विहो धम्मो। न कार्यहानिः" अर्थात् क्रोध के उदय में किसकी कार्यहानि रयण - तयं य धम्मो, जीवावं रक्खणं धम्मो" ॥478॥ नहीं होती? आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने क्रोध नामक अपने अर्थात् वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं, दस प्रकार मनोवैज्ञानिक निबन्ध में इस पर सांगोपांग प्रकाश डाला है। के क्षमा आदि भावों को धर्म कहते हैं. रत्नत्रय को धर्म | उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि जब चल्हा (कतेकहते हैं और जीवों की रक्षा को अर्थात् दया को धर्म कहते फूंकते रहने पर भी वह नहीं चेता (जला) तो पंडितजी ने क्रोध वशात उस पर पानी डाल दिया। हानि किसकी हुई? थोड़ी देर में जो चूल्हा चेत उठता, अब तो उसके जल उठने इस प्रकार वस्तु स्वभाव, क्षमादि दस धर्म, रत्नत्रय की आशा ही नहीं रही। इतिहास एवं प्रथमानुयोग के ग्रन्थ (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र), जीव दया ये सभी समानार्थक क्रोध के दुष्परिणामों से भरे पड़े हैं। शब्द हैं। । क्रोध की उत्पत्ति का मूल कारण अपने अपने मनोनुकूल वस्तुत: उत्तम क्षमादि दस धर्म ये आत्मा के स्वाभाविक कार्य नहीं होना है और उसका निमित्त कोई न कोई दूसरा गुण हैं । इन दस धर्मों में पारस्परिक घनिष्ठ संबंध है, उत्तम व्यक्ति या पदार्थ होता है जिस पर क्रोध का प्रदर्शन होता है, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि किसी एक भी गुण के अभाव चाहे वह दोषी हो या ना भी हो। कालान्तर में यह क्रोध ही में अन्यों का अभाव स्वतः ही गर्भित है। फिर भी इन दस वैर में परिवर्तित हो विनाशकारी रूप ले लेता है - इतिहास धर्मों की आधार भूमि प्रथम धर्म 'क्षमा' ही है। इसीलिए | के सभी युद्ध इसी के परिणाम हैं। इसीलिए श्री रामचन्द्र क्षमा को 'पृथ्वी' भी कहते हैं। यदि क्षमा रूपी आधार ही शुक्ल ने वैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा कहा है। नहीं होगा तो मार्दव, आर्जव आदि का प्रासाद खड़ा नहीं किया जा सकता और इसके अभाव में 'धर्म' की संज्ञा नहीं ___ यह सभी का अनुभूत तथ्य/सत्य है कि पर पदार्थ या बनेगी। वस्तु का स्वभाव भी नहीं बनेगा क्योंकि क्षमा तो पर व्यक्ति/व्यक्तियों पर क्रोध करने से उन पदार्थों या व्यक्तियों को हानि होती हो या न भी हो, किन्तु क्रोध करने वाले की आत्मा का स्वभाव है। जीव दया का पालन क्षमा के अभाव में अर्थात् 'क्रोध' में बनना संभव ही नहीं है। क्षमा' के हानि तो अवश्यम्भावी है। सबसे अधिक नुकसान क्रोध अभाव में सम्यक्चारित्र का पालन नहीं होगा, अत: रत्नत्रय' करने वाले को होता है, विशेषकर ऐसे व्यक्ति के स्वास्थ्य पर क्रोध विनाशकारी प्रभाव डालता है और वह मानसिक भी अधूरा रहेगा। इसलिए जैनदर्शन में क्षमा का और दस दिन के पर्व के उपरान्त पुनः 11वां दिन क्षमावाणी के रूप | रोग के साथ-साथ शारीरिक रोगों से भी ग्रस्त हो जाता है। में सर्वत्र मनाया जाता है। इस तरह क्षमा आधार भूमि भी है इसके उपचार की विधि क्रोध रूपी विभाव से लौटकर क्षमा रूपी स्वभाव में स्थित होना है। और दस धर्म रूपी प्रासाद का स्वर्ण कलश भी! आधार भूमि रूपी क्षमा और कलश रूपी क्षमावाणी के बीच में क्षमा का प्रभाव : समाजशास्त्रीय एवं चिकित्सा अन्य नौ धर्म हैं। वे भी आत्मा के स्वभाव हैं और क्षमा में विज्ञान के कुछ शोध समाहित भी हैं। इस प्रकार धार्मिक, आध्यात्मिक दृष्टि से एक अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के 'क्षमा' अत्यधिक महत्वपूर्ण है। जून 2004 के अंक में श्रीमती लीसा कोलियर कूल का एक लेख 'दि पावर ऑफ फारगिविंग : वेस्ट वे टू हील ए हर्ट' क्षमा का अभाव क्रोध है जो आत्मा का विभाव परिणाम प्रकाशित हुआ है जिसमें स्वास्थ्य की दृष्टि से क्षमा के है और विभाव आत्मा के साथ-साथ शारीरिक. पारिवारिक. | प्रभाव सम्बन्धी हुए वैज्ञानिक प्रयोगों का विस्तार पूर्वक 14 सितम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524289
Book TitleJinabhashita 2004 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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