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________________ हमें ऐसा मंत्र दिया कि यदि नीचे की गहराई और ऊपर ऊंचाई | करते रहें। यह अपूर्ण जीवन उनकी स्मृति से पूर्ण हो जाये। नापना चाहो तो कभी ऊपर नीचे मत देखना बल्कि अपने को | धन्य है गरु आचार्य ज्ञानसागर जी महाराजः धन्य है आचार्य देखना। तीन लोक की विशालता स्वयं प्रतिबिंवित हो जायेगी। शांतिसागर जी महाराज और धन्य है पर्वाचार्य कंदकंद स्वामी "जो एग्गं जाणदि सो सव्वं जाणदि"- अर्थात् जो एक | आदि महान् आत्माएं जिन्होंने स्वयं दिगम्बरत्व को अंगीकार को यानी आत्मा को जान लेता है वह सबको सारे जगत को | करके अपने जीवन को धन्य बनाया और साथ ही करुणाजान लेता है। धन्य है; ऐसे गुरु, जिन्होंने हम जैसे रागी, द्वेषी, पूर्वक धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। जीवों को जीवन-निर्माण में मोही, अज्ञानी और नादान के लिए भगवान बनने का रास्ता | सहारा दिया। प्रशस्त किया। आज कोई भी पिता अपने लड़के के लिए कुछ | गुरुदेव ने अपनी काया की जर्जर अवस्था में भी हम जैसे दे देता है तो बदले में कुछ चाहता भी है, लेकिन गुरु की महिमा | नादान को, ना-समझ को, हम ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं देखो कि तीन लोक की निधि दे दी और बदले में किसी चीज फिर भी मार्ग प्रशस्त किया। गुरु उसी को बोलते हैं जो कठोर की आकांक्षा नहीं है। को भी नम्र बना दे। लोहा काला होता है लेकिन पारसमणि के जैसे माँ सुबह से लेकर दोपहर तक चूल्हे के सामने बैठी | संयोग से स्वर्ण बनकर उज्ज्वल हो जाता है। गुरुदेव हमारे हृदय धुआँ सहती रसोई बनाती है और परिवार के सारे लोगों को | में रहकर हमें हमेशा उज्ज्वल बनाते जायेंगे, यही उनका आशीर्वाद अच्छे ढंग से खिला देती है और स्वयं के खाने की परवाह नहीं | हमारे साथ है। करती। आप जब भी माँ की ओर देखेंगे तब वह कार्य में व्यस्त | | हम यही प्रार्थना भगवान से करते हैं, भावना भाते हैं किही दिखेगी और देखती रहेगी कि कहाँ क्या कमी है? क्या-क्या | "हे भगवान उस पवित्र पारसमणि के समान गरुदेव का सान्निध्य आवश्यक है? क्या कैसा परोसना है? जिससे संतुष्टि मिल | हमारे जीवन को उज्ज्वल बनाये। कल्याणमय बनाये उसमें निखार सके। पर गुरुदेव तो उससे भी चार कदम आगे होते हैं। हमारे | लाये। अभी हम मझधार में हैं, हमें पार लगाये"। अपने सुख भीतर कैसे भाव उठ रहे हैं? कौन सी अवस्था में, समय में, | को गौण करके अपने दख की परवाह न करते हए दसरों के कौन से देश या क्षेत्र में आपके पैर लड़खड़ा सकते हैं। यह पूरी | दुख को दूर करने में, दूसरों में सुख-शांति की प्रस्थापना करने की पूरी जानकारी गुरुदेव को रहती है। और उस सबसे बचाकर | में जिन्होंने अपने जीवन को समर्पित कर दिया ऐसे महान वे अपने शिष्य को मोक्षमार्ग पर आगे ले जाते हैं । युगों-युगों से | कर्त्तव्यनिष्ठ और ज्ञान-निष्ठ व्यक्तित्व के धारी गुरुदेव का योग पतित प्राणि के लिए यदि दिशाबोध और सहारा मिलता है तो हमें हमेशा मिलता रहे। हम मन, वचन, तन से उनके चरणों में वह गुरु के माध्यम से ही मिलता है। गुरु का हाथ और साथ | हमेशा नमन करते रहें। वे परोक्ष भले ही हैं लेकिन जो कछ भी जब तक नहीं मिलता तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता। | हैं यह सब उनका ही आशीर्वाद है। जैसे वर्षा होने से कठोर भूमि भी द्रवीभूत हो जाती है | "गुरुदेव! अभी हमारी यात्रा पूरी नहीं हुई। आप स्वयं उसी प्रकार गुरु की कृपा होते ही भीतरी सारी की सारी कठोरता समय-समय पर आकर हमारा यात्रा-पथ प्रशस्त करते रहें, अभी समाप्त हो जाती है और नम्रता आ जाती है। इतना ही नहीं बल्कि | स्वयं मोक्ष जाने के लिए जल्दी न करें, हमें भी साथ लेकर अपने शिष्य के भीतर जो भी कमियां हैं उनको भी निकालने में | जायें" ऐसे भाव मन में आते हैं। विश्वास है कि गरुदेव तत्पर रहने वाले गुरुदेव ही हैं। जैसे कांटा निकालते समय दर्द हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनको जो भाव रहा वह होता है लेकिन कांटा निकल जाने पर दर्द गायब होता है। उसी पूरा अपने जीवन में उतारने और उनकी भावना के अनुरुप आगे प्रकार कमियां निकालते समय शिष्य को दर्द होता है लेकिन | बढ़ने का प्रयास हम निरन्तर करते रहेंगे। कमियां निकल जाने पर शांति मिल जाती है। विषाक्तता बढ़ स्वयं मुक्ति के मार्ग पर चलकर हमें भी मुक्तिमार्गी बनाने नहीं पाती। गुरुदेव की कृपा से अनंतकालीन विषाक्तता निकलती वाले महान् गुरुदेव के चरणों में बारम्बार नमस्कार करते हैं। इस चली जाती है। हम स्वस्थ हो जाते हैं। आत्मस्थ हो जाते हैं, जीवन में और आगे भी जीवन में उन्हीं जैसी शांत-समाधि, यही गुरु की महिमा है। उन्हीं जैसी विशालता, उन्हीं जैसी कृतज्ञता उन्हीं जैसी सहकारिता मरुभूमि के समान जीवन को भी हरा-भरा बनाने का श्रेय | भीतर आये और हम उनके बताये मार्ग का अनुसरण करते हए गुरुदेव को है। आज आप लोगों के द्वारा गुरु की महिमा सुनते- | धन्यता का अनुभव करते रहें। इसी भावना के साथसुनते मन भर आया है। कैसे कहूँ ? अथाह सागर की थाह कौन अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया पा सकता है। उनके ऋण को चुकाया नहीं जा सकता। इतना ही चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः॥ है हम उनके कदमों पर चले जाए; उनके सच्चे प्रतिनिधि बनें 'समग्र' से साभार और उनकी निधि को देख-देख कर उनकी सन्निधि का अहसास 6 जून जिनभाषित 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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