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________________ सुख चाहते हो तो दूसरों को सुखी बनाओ' मुनि श्री सुधासागर जी 'सुखी होना सब चाहते हैं। कोई भी दुःख नहीं चाहता परन्तु मन के चाहने से क्या कभी कुछ मिलता है? कुछ नहीं मिलता। जब पुरुषार्थ करोगे, तभी कुछ मिलेगा, यह नियम है। सुख चाहते हो तो पहले दूसरों को सुखी बनाओ। अमीर आदमी का वैभव देखकर ईर्ष्या मत करो। गिरे हुए को उठाना सीखो, गरीब को मिटाने, उसे दबाने, कुचलने की संकीर्ण मानसिकता को त्यागो, कराहते जीव की वेदना को अनुभव करो, पीड़ित को दवा, भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, निर्धन को वस्त्र, अनाथ व बेसहारे को आश्रय देना सीखो, तभी सुखी बन पाओगे।" यदि सुख चाहते हो, फिर बीज दुःख के बोना बंद करो। आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि जितनी वह सुख की कामना पर कामना करता चला जा रहा है, उतनी वह न साधना करता है और न ही मानवीय चिंतन। हर मनुष्य यही चाहता है कि मेरा कोई बुरा न सोचे परन्तु खुद दूसरे का कितना बुरा सोचता है, इस पर कभी ख्याल किया? जब खुद बुरा सोचेगा, बुरा करेगा, फिर अच्छा परिणाम कैसे मिलेगा? प्रकृति का यह नियम है कि जैसा दिया, वैसा पाओ, फिर दुःख आने पर रोते क्यों हों? चाहने से कुछ नहीं मिलता बल्कि करने से भविष्य अच्छा बन सकता है। कोई नहीं चाहता कि मेरी जिंदगी में पाप आ जाएं तब क्या पाप बिना बुलाए आते हैं? पाप कभी आमंत्रण के बिना आते ही नहीं बल्कि ध्यान रखना जितने भी पाप उदय में आते और आ रहे हैं इन सबको आमंत्रण देकर हम स्वयं ने ही बुलाया है। कोई दूसरा दोषी नही है। हम स्वयं भी उसके कारक है। यह विडम्बना है कि सब धर्म को अच्छा मानते हैं परन्तु चर्या देखो तो अधर्म की। मंदिर अच्छा लगता है, किन्तु मंदिर से दूर भागते हो। साधु संत अच्छे लगते हैं, उनकी वाणी(सत्संग) आनंद की अनुभूति देता है, परन्तु करोगे अपने मन की और चलोगे खोटे मार्ग पर फिर सुख कैसे मिलेगा? जिस दिन अपनी दृष्टि और व्यवहार में मनुष्यता आ जाए, भक्ति का ज्ञान उत्पन्न Jain Education International हो जाए, समझ लेना फिर आज नहीं तो कल सुख जरुर मिलेगा, यह मेरी नहीं परमात्मा की गारंटी है। पुण्य कमाने का रास्ता सिर्फ एक ही है और वह है धर्म किन्तु पाप कमाने के अनेक रास्ते हैं। सुख का साधन चाहे संसार का हो या परमात्मा का, उसका मार्ग एक ही 'धर्म' है। वह ध्यान रखना कि धर्म व धन की क्वालिटी एक ही है। धर्म के बिना किसी को भी संसार का सुख, वैभव, ऐश्वर्य नहीं मिला और परमात्मा की प्राप्ति से लेकर मोक्ष तक भी धर्म से ही संभव है। एक ही रास्ता है धर्म का परन्तु जिसको जिस मार्ग पर चलना है, उसे वही तो मिलेगा। प्रवचन सभा में बैठे तमाम स्त्री-पुरुषों को 'भू.पू. पुण्यात्मा' बताते हुए मुनिश्री ने कहा कि पुण्य के बिना मनुष्य पर्याय मिलती ही नहीं है। पूर्व भव में जब अनंत पुण्य कर्म किए होंगे, तभी तो यह मानव देह मिली है। इस भव में भले ही कर्म रावण जैसे कर रहे हो परन्तु यह भू. पू. पुण्य कर्मों का ही प्रतिफल है कि आज संत समागम में जिनवाणी का रसपान कर रहे हो। यह शत-प्रतिशत गारन्टी है कि यदि जिनवाणी माँ के अमृत वचन हृदयंगम हो जाएं तो फिर कभी 84 लाख योनियों में भटकना नहीं पड़ेगा। पुण्यात्मा रावण भी था, तभी तो वह सोने की लंका का मालिक बना। राम के पास सोने की लंका नहीं थी किन्तु रावण नरक में इसलिए गया कि वह अपने आचरण से दुराचारी बना और राम मोक्ष में इसलिए गए कि वे सदाचारी बनकर संसार को अपना अमृत बाँट गए। रावण व राम में सिर्फ इतना फर्क था कि रावण ने पुण्य से पाप कमाया और भरत ने पुण्य से भगवान को पाया। मुनिश्री ने सचेत किया कि किसी धनवान को देखकर ईर्ष्या मत करो। वह उसकी पूर्व पुण्य कर्म की गाढ़ी कमाई का प्रतिफल है। पूर्व में खूब पुण्य किए होंगे तभी तो उसका लाभ उठा रहा है, परन्तु यह भी निश्चित है कि वह अब जो खोटे कर्म कर रहा है, उसका भी दण्ड जरुर भोगेगा। सीधा नरक में जाएगा, इसे कोई टाल नहीं सकता, यह ब्रह्म सत्य है। चाहे सुखी बनना है या मोक्ष को पाना है। तो धर्म की गाड़ी में बैठ जाओ फिर मंजिल दूर नहीं है। 'अमृतवाणी' से साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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