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________________ भगवान् महावीर : व्यक्ति नहीं संस्कृति अरुण जैन भगवान् महावीर ने अपने जीवन की शुरूआत ठीक उसी | परिलक्षित नहीं होता। आग्रहहीनता के कारण ही वे कहीं रूके तरह की थी, जिस तरह एक नवजात शिशु करता है। वैसा ही नहीं। एकांत में रहकर वे जितने आत्मलीन रहे, भीड़ में उतने ही सूर्योदय उस समय हुआ होगा, जैसा आज होता है, वैसी ही | आत्मस्थ होकर रहे। मौन उनकी साधना का अभिन्न अंग था। सुबह हुई होगी, जैसी आज होती है। वही दूध, पानी, दही, | लंबे आवास और ध्यान के प्रसंग करते समय वे जितने अंतर्मुखी अन्ना, पोषण, वस्त्र, मकान आदि वे सब भी उस समय अजूबे | रहते, भोजन करते समय भी उनकी अन्तर्मुखता कम नहीं हुई। नहीं थे। एक नवजात शिशु के प्रथम रूदन, क्रन्दन, किलकारियों | | अपने अनाग्रही और ऋजु दृष्टिकोण से वे उस अर्हता तक पहुँच से, पालने से, धरती पर घुटने के बल रेंगने से, अंगुली के सहारे गये, जिसने उनको अहँत के रूप मे प्रतिष्ठित कर दिया। जैन चलने तक की यात्रा जैसी आज होती है, वैसे ही यात्रा उनकी दर्शन में अहँत का अपना गरिमापूर्ण स्थान है। पंचपरमेष्ठी में रही होगी। फिर क्या अन्तर था, उनमें और उनके समवयस्कों में | सिद्धों से पहिले अहँतों को नमन किया गया है। अहँतों की जो एक महावीर बन गये और दूसरे उनकी ओर निहारते ही रह | प्राथमिकता के इस क्रम में न तो कोई मनगढंत कल्पना है और गये। अवश्य कोई न कोई मौलिकता रही होगी, तभी तो वह | न ही घुणाक्षर - न्याय की प्रासंगिकता है। लोक चेतना के आज भी हमारी सांस्कृतिक विरासत के द्वार पर दस्तक दे रही | जागरण में अहँतों की जो महती भूमिका है, उसके कारण ही वे है। सच यही है कि महावीर एक व्यक्ति नहीं, अपितु एक | पांच पदों में पुरोधा का आसन ग्राहण कर पाये। भगवान् महावीर संस्कृति हैं। इस संकृति में जातिवाद, धर्मवाद, रंगभेद की नीति ने अपने समय जिनरूढ़ एवं अर्थहीन मूल्यों को बदला है, उनमें का प्रवेश नहीं है, क्योंकि वहाँ भावनात्मक एकता और विश्व- प्रमुख दास प्रथा, जातिवाद, छुआछूत, आदि ऐसे मूल्य थे, बंधुत्व के उद्घोष बुलंद हैं। वहाँ निःशस्त्रीकरण का मूल्यांकन | जिनकी जड़ें गहरी थी। प्रकृति की देन के संरक्षण हेतु भगवान् हो चुका है। इस संस्कृति में हिंसा और आतंकवाद को अपनी | महावीर स्वामी ने प्राणीमात्र की रक्षा हेतु 'अहिंसा परमोधर्मः' जड़ें फैलाने का अवसर नहीं मिल सकता, क्योंकि भय और का ध्वज फहराया। उन्होंने कहा कि प्रकृति की इस देन का संदेह के अंहकार को निगलने वाली मानवी विश्वास की किरणें उपयोग करो, 'जोड़ो वहीं, तोड़ो नहीं' यही अपरिग्रह है। चोरी फैल रही हैं। इस संस्कृति से सारे विश्व को अध्यात्म धर्म, | छुपे इसका लोभवश निजी स्वार्थ के लिए नाश करना ही उनके अहिंसा और चरित्र की प्रेरणा मिलती है। 'अस्तेय' की शिक्षा का मूल मंत्र है। 'ब्रह्मचर्य' क्या है। अपने एक राजकुमार के रूप में जन्म लेकर भी उन्होंने अपने | अर्थात 'ब्रहम' को पहिचानने की पद्धति । आज के भौतिकवादी जीवन का अधिकांश हिस्सा श्रमशील, स्वावलंबी किसानों की | युग में हम अपने सद्गुरू श्री महावीर स्वामी के उपदेशों को, तरह बिताया। वे जितने लाड-प्यार से पले उतने ही संघर्षों से अपनी युगों से चली आ रही जीवन शैली और भारतीय संस्कृति खेले । उन्हें भौतिक सुख-सविधाओं की ओर खींचने का जितना | को विस्मृत ना करें-' परस्परोग्रहो जीवानाम्'। प्रयास हुआ, वे उतने ही विरक्त होते गये। तीस वर्ष के गृहस्थ भारतीय दर्शन के क्षितिज पर ढाई हजार वर्ष पूर्व एक नाम जीवन में तो वे घर पर रहकर भी, घर में नहीं थे। अपनी उभरकर आया, जो कोई अलौकिक नहीं था और कालान्तर में इच्छाओं पर उन्होंने बचपन से ही संन्यास ले लिया था। उनकी अलौकिक रहा ही नहीं, काल के लम्बे अन्तराल में सैकड़ोंआँखों की तटस्थ आत्मीयता और संकल्प की फौलादी दृढ़ता हजारों अनुयायिओं ने उस नाम को स्वयं पर ओढ़ा है। नाम को देखकर बड़े-बड़े लोग भी स्तब्ध रह जाते थे। बारह वर्षों के ओढ़ना आरोपित करना एक बात है और उसे सही अर्थ में जीना निरंतर साधना काल में उन्होंने जो कुछ सहा, वह महावीर ही दूसरी बात है। सह सकता है। कहते हैं, संगम देव ने उनको एक रात में जितने महावीर भगवान ने महावीर को ओढा नहीं था। वे वर्द्धमान कष्ट दिये, उनसे साधारण आदमी बीस बार मृत्यु को प्राप्त हो | नाम लेकर आए और वीरता की मशाल प्रज्वलित कर महावीर सकता था। कष्टों की ज्वाला से घिरने पर भी उनके चेहरे पर | बन गये। कोई शिकन नहीं थी और ना मन में कोई प्रतिक्रिया। उनका यह सदस्य-मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग निष्कंप जीवन ही अपने आप में एक अबूझ पहेली है। 800, गोलबाजार, जबलपुर-482002 भगवान् महावीर के जीवन में किसी प्रकार का आग्रह जून जिनभाषित 2004 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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