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________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य बहकती क्रान्ति : सुबकती शान्ति आपसे मेरी भेंट तो टी.टी. नगर, जैन मंदिर (टिन शेड) 'जिनभाषित' के मार्च अंक में आपका अग्रलेख'नाटक के कुछ कार्यक्रमों में हुई है, किन्तु आपसे मेरी विशेष नजदीकी नहीं का अनाट्यशास्त्रीय प्रयोग' पढ़ा था। रात्रि में आदिकुमार | है। किन्तु मैं यह जानता हूँ कि आपको जैनधर्म के आगमग्रंथों का की बारात और विवाह की संयोजना की सलाह कोई 'शन्तिदूत' | उत्तम अध्ययन है। जिनभाषित' का पहला ही अंक मैंने आज पढ़ा तो दे ही नहीं सकते थे। यदि कदाचित् दे भी देते, तो और आपका सम्पादकीय 'मेरी बात भी सुनिये' पढ़ा। मैं इतना आगमोक्त और सही तर्क सुनकर यह स्वीकार करने में उन्हें प्रभावित हुआ कि अपनी कलम को रोक नहीं सका।आप साधुवाद जरा सी भी देरी नहीं लगती कि भूल हो गई, किन्तु जो अपने के अधिकारी हैं कि आपने हिम्मत करके 'मूल गुणों में शिथिलाचार' को 'क्रान्तिदूत' मानते हैं, वे ऐसे कैसे सहन कर लेते कि कोई पर लेख लिखा । मैं आपके लेख की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूँ और प्रबुद्ध श्रावक इस पर नुक्ताचीनी करे। गत ६ अप्रैल को टी.टी. यह भी कहना चाहता हूँ कि जैन मासिक पत्रिकाओं में काफी लेख नगर स्थित मंदिर परिसर में पूज्य संतश्री और मानस्तम्भ की छपते हैं, किन्तु आगमसम्मत लेख छापने की आपने जो हिम्मत छाया तले जो भी हुआ, अप्रैल के अंक में आपकी कलम से दिखाई, वह अनुकरणीय है, वन्दनीय है। हम व्यक्तिगत भय की 'मेरी बात भी सुनिए' को पढ़ सुनकर तन-मन दोनों ही बजह से यदि आगमसम्मत बात नहीं करेंगे, तो हमें जैन कहलाने सिहर उठे। क्या इसी का नाम क्रान्ति है? का अधिकार नहीं है। असंयमी को नमस्कार नहीं करना आगम का एक प्रतिशत सतीत्व के आपके वाक्यांश को तो बहाना मूल सिद्धान्त है और इस विषय पर असहमत होने की कोई गुंजाइश बनाया गया, सौ प्रतिशत सच तो यही था कि इस तथाकथित जैनधर्म में नहीं है। पण्डित दौलतराम जी द्वारा लिखे छन्द जो क्रान्ति को शान्ति अच्छी नहीं लगती। अब तक तो यही पढ़ा छहढाला में हैं, वे जैन धर्म की जान हैं और पं. बनारसीदास जी था कि जहाँ कोई सातिशय मूर्ति (निर्ग्रन्थ संत या जिनप्रतिमा) ने भी समयसार नाटक के माध्यम से जैन आगम की खरी बात हमें विराजमान रहती है, वहाँ शेर और गाय भी आपस में बैरभाव परोसी है। भूलकर साथ-साथ शान्तिपूर्वक बैठे हुए देखे जाते हैं, किन्तु जिन लोगों ने आपके सम्पादकीय को पढ़कर घृणा का | यहाँ तो मानव-मानव के बीच नफरत की आग को हवा दी वातावरण फैलाया है, वे सब अज्ञानी हैं गई। एक ओर तो थे आप सरीखे अनुपस्थित कलमकार और आपका यह कहना भी शतप्रतिशत उचित है कि जिनागम दूसरी ओर थी स्वयं को मुनिभक्त मानने वालों की उन्मादी ।। में आतंक के बल पर निन्दा और बहिष्कार का प्रस्ताव पास करने भीड़, जिसके विवेक-चक्षुओं पर परदा पड़ा था। यह सच है का उपदेश रंचमात्र भी नहीं है। कि इस अवसर पर संयोग से आप वहाँ होते, तो वहाँ आपका अंत में आप जैसे वयोवृद्ध, विद्वान से यही निवेदन है कि छठवाँ कल्याण हो सकता था। भविष्य में भी अच्छे-बुरे की कोई फिक्रन करते हुए आगमसम्मत बात कभी ऐसे ही किसी प्रसंग को देखकर एक अंग्रेज ने कहें, इसकी आपको कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। मुझे विश्वास दुसरे अंग्रेज को यह नेक सलाह दी होगी- 'If you go to है कि आगम में जिनकी रुचि है, वे आपको साधुवाद ही प्रेषित करेंगे। India, don't meet with a jaini, otherwise he will cut | मुझे इस पत्रिका का आजीवन सदस्य बनाने की कृपा करें। your throat for a paini.' यहाँ तो बिना पैनी के ही आप महेन्द्र चौधरी नफरत की छैनी के शिकार हो गए। अध्यक्ष- जैन समाज, कोहेफिजा आपकी हस्तरेखाओं में अलफ थी, वह पुण्योदय से ई-३१/बी.डी.ए. कॉलोनी, कोहेफिजा भोपाल टल गई। इस खुशी में मैं यहाँ आपकी ओर से बतासे बाँट मीठा जहर नहीं, कड़वी औषधि ही चाहिए रहा हूँ। यह घटना वैसे तो भयावह थी, पर नफरत की धुन्ध 'जिनभाषित' अप्रैल २००४ का सम्पादकीय पढ़ा। यह छटने पर यह सुखद सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। | विरोध उस गहरी बीमारी का लक्षण है, जिससे शनैः शनैः अज्ञातरूप से सम्पूर्ण समाज ग्रसित होता जा रहा है। आगम में नरेन्द्रप्रकाश जैन मुनियों एवं श्रावकों की चर्या का सुस्पष्ट उल्लेख है। श्रावक का धर्म सम्पादक - जैनगजट १०४, नई बस्ती, फिरोजाबाद (उ.प्र.) मुनिचर्या में सहायक होना है। शिथिलाचारी की आलोचना नहीं, | अपित स्थितीकरण ही उपादेय है। प्रश्न किंतु वही है, क्या मई 2004 जिनभाषित 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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