SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ... . Cur म. जो क्रमवार प्राकृत के स्वरों और वर्णाक्षरों के समान हैं। डॉ. श्री। सिरिभूवलय ग्रंथ में ओंकार की महत्ता बतलाते हुए अनेक महेन्द्र कुमार मनुज ने इस ग्रंथ के अंतिम (अंक) चक्रबंध को | गाथाएँ हैं। वह बीजाक्षर तो है ही, एक अंक भी है और भूवलय पढ़ने में सफलता भी पाई है और अति उत्साह जनक सामग्री भी | भी। वही दिव्य नाद है, वही परमात्म वाणी। वही सिद्ध स्वरूप है प्रस्तुत की है। और वही केवल ध्वनि । वही शुद्धाक्षर है, वही हमारा अंत। चारों सैंधव प्रतीकों में ऊँ तीन रूपों में स्पष्ट झलका है। एक | वेदों में इस ओम सा अन्य शब्द भी नहीं।' इस प्रकार ओम एक सील में सिर की पूंछ वाला और दो में नीचे पूंछ वाला। हमारा | 'अंक' भी है और 'स्वर' भी, 'अक्षर' भी है और 'शब्द' भी। वर्तमान ऊँ अंकन मध्यम पूंछ वाला इन्हीं दोनों से उपजी अभिव्यक्ति | वही भूवलय कहा गया है-' (चित्र २) वह 'जाप'भी है और प्रतीत होता है। 'मंत्र' भी यह शीर्ष से लटकता ऊँ अनेक प्राचीन जिन बिंबों के पाद विन्ध्यगिरि पर पीठों पर अंकित मंत्रों में चट्टान के वक्ष पर एक अत्यंत भी झलकता है। इससे कब्ध प्राचीन आकृति उकेरी हुई इतना तो अवश्य ही दिखती है जो मेरे अनुमान प्रमाणित होता है कि आज से भूवलय का चक्रबंध होना जानी जाने वाली देवनागरी चाहिए। इसे मैंने फोटो में उस प्राचीन पुरा काल में अंकित कर लिया है और भी प्रचलित थी।तब सैंधव असब उसे पाठकों के सामने मनीषियों ने संकेत और चित्र लिपि का आश्रय क्यों लिया? उत्तर विस्तार में रखना उचित में मात्र यही स्पष्ट लगता है कि 'चित्र तथा संकेत' प्रत्येक भाषा समझती हूँ। इसी (चित्र ३) का जानकार और 'अनक्षरकार' समझ सकता है जबकि लिपि से मिलता जुलता एक साक्षर व्यक्ति ही कदाचित ! अतः चित्र और संकेत लिपि का पाइलोस टेब्लेट १९५७ में आश्रय लेकर उन मनीषियों ने अपनी गहरी समझ और दूरदृष्टि एन्ड्रयू राबिन्सन ने अपनी का परिचय दिया है। वह लिपि भारत में जहाँ-तहाँ उत्खननों द्वारा पुस्तक 'लॉस्ट लेंग्वुएजेस' सामने आई है और संभवतः आसपास के पुरा अवशेषों में भी | में दर्शाया है। (चित्र ४) खोजने पर झलके। ये शोध हेतु बड़ा ही रोचक विषय बनता है। विन्ध्यगिरि पर प्राप्त (चित्र ३) आकृति घेरों के अंदर घेरे - यह अब एक विडंबना है कि हम उन चित्रों और संकेतों | बनाती सबसे अंदर ऊँ का रूप लिए है जो सिरिभूवलय में प्रस्तुत को तभी समझ सकते हैं जब हम उनसे परिचित हों। एक व्यक्ति | वर्णन से बहुत मेल रखती है। भूवलय को यदि अक्षर रूप में बना भूखा था उसने पेट की ओर इशारा करके हाथ मुंह की ओर | लिया जाए तो चतुर्थ खंड में एक कक्षपुट निकलता है। उसी बढ़ाया किंतु छुरी कांटे से खाने वाला व्यक्ति मात्र इतना ही समझ | कक्षपुट को चक्रबंध करने से एक दूसरा कक्षपुट तैयार हो जाता सका कि उसे पेट में कुछ कष्ट है। उसे हाथ का मुंह तक लाया | है। इसी प्रकार बारंबार करते जाने से अनेक कक्षपुट निकलते जाना समझ में नहीं आया। यही स्थिति अब सैंधव लिपि के साथ रहते हैं। इन्हीं कक्षों में जगत के रक्षक अक्षर बंधों में से समस्त घट रही है। जिसने उस अध्यात्म और जीवन शैली को भुला दिया | भाषाएँ निकलकर आ जाती हैं।' अमोघ वर्ष-१ को यह ग्रंथ सन है वह भला उसे कैसे समझेगा? उसको समझने के लिए हमें उन ६३६ में पढ़ाया गया था। अर्थात् यह अमोघ वर्ष -१ से और भी व्यक्तियों के निकट जाना होगा जो उस जीवन शैली से परिचित | प्राचीन रहा है। अंकों की महत्ता १ से ९ तक बतलाते हुए इस ग्रंथ में भला करें से जल निकालना कौन पसंद करेगा जब घरों में बतलाया गया है कि प्रथम पांच अंक पांच परमपद दर्शाते हैं। नलों की भरपूर व्यवस्था हो? नदी और झरनों, तालाबों को तब | अर्थात् १. सिद्ध २. अरहंत ३. आचार्य ४.उपाध्याय ५.सर्वसाधु कौन पसंद करेगा? यही कारण रहा कि प्राचीन काल में कुएं ६. सच्चा धर्म ७. परिशुद्ध परमागम ८. जिनेन्द्र भगवान् की मूर्ति जलाशय खुदवाए जाते थे तो आज अब नल हैं। नदियों में बाढ़ | और ९. गोपुर अथवा द्वार अथवा शिखर अथवा मानस्तंभ (पृ. आती थी तो अब आज ट्यूब वैल घर-2 पानी का साधन बने हुए | १०३/६वाँ अध्याय, सर्वार्थसिद्धि संघ बेंगलोर का सिरिभूवलय हैं। किंतु जैन मंदिरों' और जैन 'चौकों' का आधार आज भी कुएं | ग्रंथ) हैं जिन्हें 'दकियानसी' कहकर 'आधनिक हवा' ने ठुकराया है।। 'रत्नत्रय' के स्वरूप को दर्शाते हुए उसे (3x3) की भारत में कुएं भारत का 'पुरा' वैभव हैं। | चरमावस्था में बतलाया गया है। सम्यक् दर्शन, सम्यक-ज्ञान और - जनवरी 2003 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy