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सिरि भूवलय की रहस्यमय अभिव्यक्ति
डॉ. स्नेहरानी जैन एवं जिनेन्द्र कुमार
आचार्य कुमुदेन्दु द्वारा रचित ग्रंथ 'सिरिभूवलय' (सर्वार्थ | भारत वर्ष क्षेत्र की पुरातन निधि'थी। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता सिद्धि संघ. बेंगलोर. सं. २०१४ वीर निर्वाण संवत् २४८४) एक था कि आर्य बाहर से आए नहीं थे बल्कि आर्य खंड के मूलनिवासी ऐसी कृति है जो हड़प्पा संस्कृति के कुछ रहस्यमय प्रमाण प्रस्तुत | थे। तब द्रविड़ कौन हुए? अत्यंत प्राचीन इतिहास हमें कथारूप में करती है। सैंधव लिपि जो संकेत और चित्र चिन्हों के रूप में पुरा | रामायण तथा महाभारत में मिलता है। प्राचीन भारत की झांकी सामग्री पर अंकित प्राप्त हुई है, उसे विश्व के विद्वानों की भारी भीड़ | मौर्य वंश काल से मिलना प्रारंभ होती है। उससे पूर्व-काल का लगभग पूरी शती लगाने के बाद भी संतुष्टि प्राप्त करते हुए नहीं पढ़ | इतिहास हमें वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मणों तथा संहिताओं से ही मिल सकी है। उस पुरा लिपि को पढ़े जाने की घोषणा करने वाले | पाता है। इनमें इतिहास ढूँढ़ने पर शबरी, निषाद, सुग्रीव, नील के विद्वान उस लिपि को ना पढ़ते हुए नई-नई भाषाएँ ईज़ाद करते रह | रूप में दिखता है। रामायण में राम की खड़ाऊँ और हृदयांकित गये हैं। फलस्वरूप एक ही संकेत/चित्र को सभी अपनी-अपनी | चरण चिन्ह के रूप में मिलता है जो मात्र 'संकेत' हैं। उत्तर दृष्टि से अलग-अलग पढ़ते रहे हैं। इसी कारण सर्वसहमति बिना | कालीन डायरियों में मेगस्थनीज ने अपना स्थान बनाया है जो
उन्हें असंतुष्टि बनी रहीऔर | जिनश्रमणों से संबंधित कुछ जानकारी जुटाती है। किंतु पाषाणों
| पर अंकित शिलालेख, मूर्तियाँ और चट्टानों के हृदय पर लिखी जिस समय हड़प्पा | चित्रांकित कथाएँ, गुफाओं के लेख पुरा इतिहास के जीवंत साक्षी और मोहन जोदड़ो की खुदाई | हैं। से पुरा संपदा प्राप्त हुई उस | इन सभी से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भारत में भी समय अत्यंत उत्साह से उस | कोल, भील,चोल जातियाँ आदिवासियों के रूप में सम्मान सहित सभ्यता के प्राप्त प्रमाणों को | रहती थीं और भारत में काले गोरे का सतही भेद कभी भी नहीं सहेजते हुए यही कल्पना की | रहा, क्योंकि राम तथा कृष्ण दोनों ही सांवले थे। इनकी पत्नियाँ गई कि 'भारत की वह मूल, | अतीव सुन्दरियाँ थीं और इन्हें इनके वर्ण के कारण कभी भी अत्यंत उन्नत परंपरा मात्र | तिरस्कृत नहीं किया गया। ३०० वर्ष रही और बाद में रामायण की कथा ने विश्व में सर्वाधिक प्रसार पाया। क्रूर आक्रामकों द्वारा (मूल | जिस भी भूभाग में वह गई वहीं के परिवेश में उसे मान्यता मिली। निवासी) उन निहत्थों का | किंतु भारत में भी उसके अवशेष पुरा-प्रतीकों में झलकना चाहिए
नामो निशान ही इस धरा से थे सो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में उसके प्रतीक नहीं झलके। खत्म कर दिया गया जिससे उस सभ्यता का समूल अंत हो गया। इसका एक ही कारण संभव लगता है कि 'त्रेताकाल' की वह पाकिस्तान बनाए जाने के बाद वह क्षेत्र भारत का हिस्सा ना रहा। घटना सैंधव संस्कृति से उत्तर कालीन ही रही हो। जैन धर्म की उस संस्कृति की खोज आसपास करते हुए प्रथम तो पंजाब में | साहित्य प्रमाण कड़ी में उसे बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत काल का फिर राजस्थान और कच्छ तथा गुजरात में उत्खनन हुए और इस | होना आंका गया है। उन्हीं मुनिसुव्रत भगवान की एक मूर्ति आज प्रकार कालीबंगा, राखीगढ़ी, सिसवाल, धोलावीरा, लोथल, तेलोह, | भी पैठण नामक जैन तीर्थ (महाराष्ट्र) में अवस्थित है जिसके बारे बनावली आदि अनेक स्थान उस संस्कृति की हूबहू झलक लेकर में यह मान्यता है कि उसे रामचन्द्र जी ने सीता, लक्ष्मण सहित सामने आए। तब कहीं स्पष्ट हुआ कि वह संस्कृति मात्र सिंध में | अपने वनवास काल में पूजा है। संपूर्ण रामायण के अध्ययन से ही नहीं संपूर्ण नर्मदा और गंगा के बीच के मैदान में व्याप्त संस्कृति | यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि उस काल में लिपियाँ थीं या नहीं थी जो कृषि, कला, औजार, पशुपालन, भवन निर्माण आदि में | किंतु पूजन, हवन के विषय में अवश्य जानकारी मिलती है। उन्नत होते हुए लेखन, व्यापार, वाणिज्य और ज्ञान तथा अध्यात्म | (पृ.१७१अ.१०) सिरिभूवलय ग्रंथ में "ऊँ" का महत्व में भी अति उन्नत थी। उस संस्कृति का अध्ययन और उससे | ओंकार के रहस्य रूप में दर्शाया गया है कि 'ऊँकार के द्वारा आए निकाले गए निष्कर्षों में धुंधली सी 'आर्य और द्रविड़' भेद को हुए सभी शब्दागम के अक्षर-अंक सर्वत्र, संपूर्ण शंकाओं का झलक थी। जबकि वह संस्कृति 'भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड के परिहार करने वाले शंका दोष रहित अंक हैं। ये अंक १ से ६४ हैं
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जनवरी 2003 जिनभाषित
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