SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय खेद जनक लेख जैन गजट 3 जुलाई के अंक में श्री गुणवंतजी टोंग्या बड़नगर का लेख 'एक निरर्थक प्रयास आगम एवं पुरातन आचार्यों के अवर्णवाद का' प्रकाशित हुआ है। लेख में प्रो. रतनचन्द जी, भोपाल द्वारा लिखित लेख'पूजा पाठ संग्रहोक्त और शास्त्रोक्त पूजा विधियों में अंतर' की आलोचना की गई है। इस लेख में आलोच्य लेख के लेखक सम्मान्य प्रोफेसर साहब के प्रति स्थान-स्थान पर जिस प्रकार के अनादरपूर्ण भाषा में निंदा जनक हल्के शब्दों का प्रयोग किया है वह अत्यंत अंवाछित, अशिष्ट और आपत्तिजनक है। लेखक के विचारों से असहमत होकर उनकी आलोचना करने का अधिकार एक पवित्र विचार स्वातन्त्र्य का अधिकार है, किंतु वह आलोचना शिष्ट शब्दों में प्रामाणिक, तथ्यात्मक एवं आलोच्य लेख के लेखक के प्रति समुचित शिष्टाचार प्रदर्शित करते हुए होनी चाहिए। लेख में आलोच्य लेख के विषय की आधार पूर्वक आलोचना की जानी चाहिए न कि लेखक की व्यक्तिगत निंदा। श्री टोंग्या जी ने कहीं कहीं तो प्रोफेसर साहब के प्रति इतने हल्के शब्दों का प्रयोग किया है कि जिनको पढ़ते हुए पाठक को लज्जा का अनुभव होता है। आश्चर्य है लेखक महोदय की लेखनी कैसे इतनी अशिष्ट एवं निष्ठर हो गई? जब लेखक के पास ठोस आधारभूत विषय लेखन के लिए नहीं रहता है तभी वह खिसियाकर ऐसे अपशब्दों का सहारा ले लेता है। किंतु माननीय श्री टोंग्या जी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके द्वारा प्रयुक्त अपशब्दों के उत्तर में कोई उनके लिए भी दो चार गुने अपशब्दों का प्रयोग कर सकता है। किंतु प्रोफेसर साहब की गरिमामय सहिष्णुता एवं शालीनता ने श्री टोंग्या जी की अशिष्ट भाषा पर न ध्यान दिया और न उसे स्वीकारा ही है। अत: माननीय श्री टोंग्या जी की निदांत्मक भाषा स्वयं उनके पास ही रह गई है। प्रो. रतनचन्द्र जी समाज के सम्मान्य मूर्धन्य विद्वान हैं। वे प्रतिष्ठित जैन पत्रिकाओं के संपादक एवं शोधपूर्ण प्रामाणिक आलेखों और पुस्तकों के लेखक हैं। श्री टोंग्या जी के द्वारा प्रयुक्त अपशब्दों से उनके ही अपने परिणाम दूषित हए हैं। प्रोफेसर साहब की प्रतिष्ठा ऐसे हल्के शब्दों से अप्रभावित रहेगी। ___इस लेख में श्री टोंग्या जी आगे बढ़कर जैन आगम के मर्मज्ञ विद्वान कविवर पं. बनारसी दास जी पर भी आक्रमण करने से नहीं चूके हैं। श्री पं. बनारसी दास जी ने भ्रष्ट मुनियों के रूप में मठाधीश बने भट्टारकों द्वारा मध्यकाल में प्रचारित मिथ्या परिपाटियों एवं मिथ्या देवी-देवताओं की पूजा आदि क्रिया कांडों का विरोधकर श्रावकों में तत्व ज्ञान के आधार पर धर्म के भाव पक्ष को स्थापित किया था। यदि कभी समाज में अज्ञान के कारण धार्मिक क्रियाओं में कोई असत् परिपाटी ने स्थान ले लिया तो आचार्य अथवा विज्ञजन सदुपदेश द्वारा उस परंपरागत प्राचीन विकृति को दूर करते हैं । ऐसा ही कुंदकुंद प्रभृति आचार्यों ने किया। ऐसा ही आचार्य शांतिसागर जी ने भी किया। उन्होंने श्रावकों के घरों से ढेरों मिथ्या देवी-देवताओं की मूर्तियों को निकलवाया और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र का श्रद्धान कराया। इस प्रकार मिथ्या धार्मिक क्रियाओं और मान्यताओं में श्री पं. बनारसी दास जी ने सुधार कराया, अतः वे जैन समाज के आचार्य सदृश आदर के पात्र हैं । महान् आचार्य नेमीचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती ने लिखा है कि सम्यग्दृष्टि जीव अज्ञान के कारण अथवा अल्पज्ञानी गुरुओं के उपदेश के कारण असत् पदार्थ का श्रद्धान कर लेता है किंतु जब विशेष ज्ञानी गुरुओं के संयोग से वस्तु के समीचीन स्वरूप का परिचय मिल जाता है तो पूर्व की श्रद्धा को बदलकर समीचीन स्वरूप की श्रद्धा कर लेता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (गोम्मटसारजीवकांड गाथा 27-28)सचित्त-अचित्त द्रव्यों से पूजा करने की अगस्त 2003 जिनभाषित 3 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524276
Book TitleJinabhashita 2003 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy