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________________ चतुर्विध संघ शांति-समृद्धि-साधना पद्धति में सहायक है : वास्तुविज्ञान जैन सुधीर कासलीवाल किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव । निर्धारित करना चाहिये ? और भाव इन पांच समवायों की आवश्यकता होती है, इनमें से उत्तर - नैऋत्य या दक्षिण या पश्चिम दिशाओं में। क्षेत्र को व्यवस्थित करना ही 'वास्तु' कहलाता है। वर्तमान में हीन प्रश्न - जहाँ संघ रुकता है (वसतिका) उससे शौच एवं संहनन एवं साक्षात् तीर्थंकर भगवान् जेसे निमित्तों के अभाव में | लघुशंका का स्थान किस दिशा में होना चाहिये? कमजोर उपादान लड़खड़ा जाता है। संवर, निर्जरा .... साधना उत्तर - वायव्य या नैऋत्य (पश्चिम के बीच में) की मार्ग में उपयोगिता महसूस हुई मोक्षमार्ग के कारण-का-कारण तरफ। वास्तु-विज्ञान की 'पहला सुख निरोगी काया' 'काया राखे धर्म' प्रश्न - शौच एवं लघुशंका करते समय साधक का मुंह 'न धर्मो धार्मिकैर्विना' आदि कुछ सूक्तियाँ मेरे लिये प्रेरणादायी | किस दिशा में होना चाहिये ? बनी और लिखने बैठ गया। उत्तर - उत्तर या दक्षिण में। श्रमण संस्कृति के अनुयायियों के लिये, धर्मात्माओं के प्रश्न - आहार करते समय साधक का मुंह किस दिशा में लिये यानि चतुर्विध संघ को दृष्टि में रखकर निष्काम भावनाओं से | होना चाहिये? . भरकर वास्तु सम्बन्धी तथ्यात्मक एवं प्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत उत्तर - सर्वश्रेष्ठ पूर्व दिशा, उत्तर भी हो सकती है, ध्यान करने का मेरा मन बना। साधकों का स्वास्थ्य, साधना, स्वाध्याय | रखें मुख्यद्वार की ओर आहार करते समय पीठ नहीं होनी चाहिये। एवं जमकर धर्मप्रभावना हो, स्वयं के आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त प्रश्न - रात्रि विश्राम के समय साधक के पैर किस दिशा हो तथा समाज हमारे आदर्शों से सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान- | में होने चाहिये? सम्यक्चारित्र का पाठ सीखे और स्वयं "गृहस्थो मोक्ष मार्गस्थो" | उत्तर - पूर्व की तरफ पैर हो । उत्तर की तरफ भी किये जा के सूत्र पर चलें, ऐसी अन्त:करण की भावना से प्रेरणा मिली। | सकते हैं। __ अधिकांश जनों की एक ही धारणा है कि कर्मोदय ही सब प्रश्न - संघ के अस्वस्थ साधक किस स्थान पर रुकें? कुछ है, किन्तु आगम ग्रंथों में कर्मों की उदीरणा, अपकर्षण, उत्तर - पूर्व, पश्चिम अथवा उत्तर दिशाओं में रुकें, संक्रमण जैसी अनेकों दशायें वर्णित हैं यानि मात्र कर्मोदय कहकर | विदिशाओं वाले कमरों में न रुकें। हम जीवन के बहुमूल्य एवं स्वर्णिम क्षणों को यूं ही न जाने दें | प्रश्न - प्रवचन व स्वाध्याय करते समय वक्ता का मुंह वरन रचनात्मक दिशा में आहूत करें। किस दिशा में हो? जैन सिद्धान्त में आचार्य वीरसेन स्वामी ने वास्तु का उल्लेख उत्तर - प्रवचन करते समय उत्तर में या पूर्व में तथा करते हुये कहा है- "थल गया णाम... वत्थु-विज्ज भूमि ... स्वाध्याय करते समय पूर्व की ओर मुंह होना चाहिये। संबंध मण्णं पि सुहासुह - कारणं वण्णेदि अर्थ-स्थल गता, चूलिका प्रश्न - आर्यिकाजी, क्षुल्लिकाजी एवं ब्रह्मचारिणी बहनें वास्तु विद्या और भूमि संबंधी दूसरे शुभ-अशुभ कारणों का वर्णन अशुद्ध अवस्था में किस दिशा वाले कमरे में रहें? करती है" उत्तर - वायव्य दिशा वाले कमरे में, सोते समय पैर उत्तर धवला पुस्तक 1, पृष्ठ 114 | दिशा की तरफ हों। आईये हम वास्तु विज्ञान से सम्बन्धित कुछ जानकारियाँ प्रश्न - वस्त्रधारी साधक वस्त्र बदलते एवं धोते समय हासिल करें अपना मुंह किस दिशा में करें? प्रश्न - संघ के प्रमुख साधक को किस दिशा में दिन एवं उत्तर - पूर्व दिशा में सर्वश्रेष्ठ है, उत्तर में भी मुंह कर रात्रिकालीन स्थान का चयन करना चाहिये और उस कमरे में भी कमर म भा | सकते हैं किंतु धोते वक्त पूर्व दिशा ही उत्तम है। कहाँ बैठे? प्रश्न - जिस भवन में साधक रुके हों यदि वह तिरछा उत्तर - नैऋत्य दिशा में । दक्षिण में बैठे उत्तर की ओर मुंह | बना है या दिशा तिरछी पडती है तब दिशा का निर्धारण कैसे करके । पश्चिम में बैठे पूर्व की ओर मुंह करके। करें? प्रश्न - जहाँ संघ रुके वह स्थान नगर की किस दिशा में उत्तर - विदिशा वाले भवनों में दिशा का निर्धारण सीधा 18 अगस्त 2003 जिनभाषित - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524276
Book TitleJinabhashita 2003 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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