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________________ संवेग आचार्य श्री विद्यासागर जी जिस प्रकार ललाट पर तिलक के अभाव में स्त्री का सम्पूर्ण श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के नहीं होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है, वैसे ही बिना संवेग के सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग सम्यग्दृष्टि साधक का अलंकार है। संवेग का मतलब है संसार से भयभीत होना, डरना।। ये 'संवेग' अधिक घनीभूत होता है। संवेग अनुभव और श्रद्धा आत्मा के अनन्त गुणों में यह संवेग भी एक गुण है। पूज्यपाद के साथ जुड़ा हुआ है। इस संवेग की प्राप्ति अति दुर्लभ है। स्वामी लिखते हैं कि सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है- सराग वीतरागता से पूर्व यह प्रस्फुटित होता है और फिर वीतरागता सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। संवेग, सराग सम्यग्दर्शन उसका कार्य बन जाती है। संवेग के प्रादुर्भूत होने पर सभी के चार लक्षणों में से एक है। जैसे ललाट पर तिलक के अभाव बाहरी आकांक्षायें छूट जाती हैं जहाँ संवेग होता है वहाँ विषयों में स्त्री का श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर मंदिर की कोई की ओर रुचि नहीं रह जाती, उदासीनता आ जाती है। शोभा नहीं है। वैसे ही बिना संवेग के सम्यग्दर्शन कार्यकारी भरत चक्रवर्ती का वर्णन सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया नहीं है। संवेग सम्यग्दृष्टि साधक का अलंकार है। जा रहा है। उनके भोगों का वर्णन तो किया जाता है किन्तु संवेग एक उदासीन दशा है जिसमें रोना भी नहीं है, | उनकी उदासीनता की बात कोई नहीं करता। एक व्यक्ति अपने हँसना भी नहीं है, पलायन भी नहीं है, बैठना भी नहीं है, दूर भी बारह बच्चों के बीच रहकर बड़ा दुःखी होता है। उसकी पत्नी नहीं हटना है और आलिंगन भी नहीं करना है। यह जो आत्मा उससे कहती है, “भरत जी इतने बड़े परिवार के बीच कैसे की अनन्य स्थिति है वह सद्गृहस्थ से लेकर मोक्ष-मार्ग पर रहते होंगे। जहाँ छयानवै हजार रानियाँ, अनेकों बच्चे और आरूढ़ मुनि महाराज तक में प्रादुर्भूत होती है। मुनि पग-पग पर अपार सम्पदा थी। उनके परिणामों में तो कभी क्लेश हुआ हो डरता है और सावधान रहकर जीवन जीता है। वह अपने ऐसा सुना ही नहीं गया।" वह व्यक्ति भरत जी की परीक्षा लेने आहार-विहार में, उठने, बैठने और लेटने की सभी क्रियाओं में पहुँच जाता है, भरत जी सारी बात सुनकर उसे अपने रनिवास सदैव जाग्रत रहता है, सजग रहता है। यदि ऐसा न हो तो वह में भेज देते हैं। उस व्यक्ति के हाथ पर तेल से भरा हुआ कटोरा साधु न होकर स्वादु बन जायेगा। साधु का रास्ता तो मनन और | रख दिया जाता है और कह दिया जाता है कि "सब कुछ देख चिंतन का रास्ता है। उसकी यात्रा अपरिचित वस्तु (आत्मा) से | आओ, लेकिन इस कटोरे में से एक बूंद भी नीचे नहीं गिरनी परिचय प्राप्त करने का उत्कृष्ट प्रयास है। ऐसे संवेग समन्वित चाहिये अन्यथा मृत्यु दण्ड दिया जायेगा।" वह व्यक्ति सब साधु के दर्शन दुर्लभ हैं। आप कहते हैं कि हम 'वीर' की कुछ देख आया पर उसका देखना न देखने के बराबर ही रहा, सन्तान हैं। बात सही है। आप 'वीर' की सन्तान तो अवश्य हैं, सारे समय बूंद न गिर जाने का भय बना रहा। तब भरतजी ने किन्तु उनके अनुयायी नहीं। सही अर्थों में आप 'वीर' की। उसे समझाया, 'मित्र जागृति लाओ. सोचो, समझो। ये नव सन्तान तभी कहे जायेंगे जब उनके बताये मार्ग का अनुसरण | निधियाँ, चौदह रत्न, ये छयानवें हजार रानियाँ ये सब मेरी नहीं करेंगे। हैं। मेरी निधि तो मेरे अंतरंग में छिपी हुई हैं, ऐसा विचार करके संवेग का प्रारम्भ कहाँ ? जब दृष्टि नासाग्र हो, केवल | ही मैं इन सबके बीच शांत भाव से रहता हूँ।' अपने लक्ष्य की ओर हो और अविराम गति से मार्ग पर चले। रत्नत्रय ही हमारी अमूल्य निधि है । इसे ही बचाना है। आपने सर्कस देखा होगा, सर्कस में तार पर चलने वाला न ताली | इसको लूटने के लिये कर्म चोर सर्वत्र घूम रहे हैं । जाग जाओ, बजाने वालों की ओर देखता है और न ही लाठी लेकर खड़े | सो जाओगे तो तुम्हारी निधि ही लुट जायेगी। आदमी को देखता है। उसका उद्देश्य इधर-उधर देखना नहीं है | "कर्म चोर चहुँ ओर सरबस लूटें सुध नहीं" उसका उद्देश्य तो एकमात्र संतुलन बनाये रखना और अपने संवेगधारी व्यक्ति अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता लक्ष्य पर पहुँचना होता है। यही बात संवेग की है। है। चाहे वह कहीं भी रहे। किन्तु संवेग से रहित व्यक्ति स्वर्गिक सम्यग्दर्शन के बिना पाप से डरना नहीं होता। संसार से | सुखों के बीच भी दुःख का अनुभव करता है और दुखी ही 'भीति' सम्यग्दर्शन का अनन्य अंग है। वीतराग सम्यग्दर्शन में | रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524276
Book TitleJinabhashita 2003 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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