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'कामायनी', निराला की पहचान के लिए 'राम की शक्ति पूजा', छा जावे सुख छाँव, दिनकर की पहचान के लिए 'उर्वशी', पंत की पहचान के लिए सबके सब टलें 'लोकायतन', और इसी प्रकार आचार्य श्री की साहित्य जगत में अमंगल भाव, पहचान 'मूकमाटी' के द्वारा कायम हुई। 'मूकमाटी' आधुनिक सबकी जीवन-लता काल का ऐसा महाकाव्य है जिसने जनमानस को आंदोलित किया हरित-भरित विहंसित हो है। 'मूकमाटी' आने वाले समय में भारतीय संस्कृति को अक्षुण्य गुण के फूल विलसित हों बनाये रखने के लिए एक थाती का कार्य करेगी। यह कृति कवि, नाशा की आशा मिटे मनीषी, संत और आध्यात्म के क्षेत्र में शिखर ऊँचाईयों को प्राप्त आमूल महक उठे कर चुके उस महान् कवि का अनुभूतिगम्य निचोड़ है जो कि
............. बस।" साधना के उच्चतम सोपानों को प्राप्त करने के पश्चात प्राप्त होता है। मूकमाटी में (का पूरा कथानक) माटी के उद्धार की 'मूकमाटी' के अनुपम उपहार को साहित्य जगत् जिस कृतज्ञ भाव | कथा काव्य-रूप में है। यहाँ माटी आत्मा की प्रतीक है, जो भवसे ले रहा है वह नि:संदेह अत्यंत शुभ संकेत है।
भटकन से मुक्ति के लिए सच्चे गुरू की शरण में स्वयं साधनालीन वास्तव में देखा जाय तो 'मूकमाटी' केवल एक काव्य | | हो सुख-शांति के पथ पर चल कर स्वयं परमात्मा बनती है। कृति ही नहीं, वरन् एक ऐसा महाकाव्य है जिसमें भक्ति, ज्ञान | अर्थात् माटी अपने संकर दोषों से विरत होकर मंगल-कलश के और कविता की त्रिवेणी का संगम सबको पावन बना देता है।| रूप में ढलती है। इसके पहले यह नीति नियमों की रीति से आचार्य श्री ने स्वयं इस महाकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालते गुजरकर अग्नि परीक्षा देती हैहुए लिखा है- "जिसने वर्ण, जाति, कुल आदि व्यवस्था विधान "मेरे दोषों का जलाना ही को नकारा नहीं है, परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप उसमें मुझे जिलाना है उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है। इसलिए संकर दोष स्व पर दोषों को जलाना से बचने के साथ-साथ वर्ण लाभ को मानव जीवन का औदार्य व परम धर्म माना है संतों ने।" ' साफल्य माना है। जिसने शुद्ध सात्विक भावों से संबंधित जीवन अग्नि परीक्षा के बाद पका हुआ कुम्भ अपनी महिमा के को धर्म कहा है। जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक | यश में अपने आप को नहीं भूलता है। वह तो माँ धरती, धृतिऔर धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और | धरणी, भूमा का ही बना ही रहना चाहता है जो इस बात का युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर | द्योतक है कि हम कितने ही वैभवशाली बनें, मगर अपनी संस्कृति, मोड़कर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है।" । अपनी सभ्यता और माटी को न भूलें
आचार्य श्री का यह महाकाव्य जैन दर्शन के धरातल पर "धरती की थी, रहेगी माटी यह समकालीन परिप्रेक्ष्य में काव्य शास्त्र की एक नवीन भाव-भूमि
किन्तु को प्रस्तुत करता है। 'माटी' को आधार बनाकर 'मुक्त छंद' में पहिले धरती की गोद में थी भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से आचार्य श्री का यह अनुपम आज धरती की छाती पर है और स्तुत्य प्रयास है जिसमें कवि की दृष्टि पतित से पावन बनाने कुंभ के परिवेश में।" की ओर दिखाई देती है। आचार्य श्री का यह महाकाव्य मानव यहाँ पर मूकमाटी महाकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह सभ्यता के संघर्ष और सांस्कृतिक विकास का दर्पण है। यह कृति ] है कि निर्जीव प्रतीक भी सजीव पात्र बनकर हमारे सामने ऐसे मानवता को असत्य से सत्य की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, | प्रस्तुत होते हैं जैसे कि साक्षात् वार्तालाप हो रहा हो। यहाँ पर अशांति से शांति की ओर और बाह्य से अन्तर की ओर ले जाने | महाकवि ने स्वर्णकलश को आतंकवाद और पूंजीवाद का प्रतीक वाली ऐसी अन्यतम रचना है जो एक साथ अनेक प्रसंगों को | माना है, जबकि कुंभ कलश तो दीपक के समान पथ निर्देशन लेकर चली है। जिस तरह से बट-बीज से बट का विशाल वृक्ष | करने वाला हैबनता है ठीक उसी तरह से नर भी नारायण बनता है और यह "हे स्वर्ण कलश सच्ची साधना उपासना से ही सम्भव है। इसी लक्ष्य को लेकर तुम तो हो मशाल के समान महाकवि ने इस महत् कार्य को काव्य रूप में संस्कारित किया है, कलुषित आशयशाली जिसका औदात्य भाव हम 'मूकमाटी' की निम्न पंक्तियों में देख
और सकते हैं
माटी का कुंभ है "यहाँ .......................... सबका सदा
पथ-प्रदर्शक दीप-समान जीवन बने मंगलमय
तामश-नाशी
-अगस्त 2003 जिनभाषित 11
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