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________________ ति ग्रन्थकारों ने इन्हें हिंसा का कारण होने से त्याज्य बताया है। । प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। पहली प्रतिमा का स्वरूप आशाधर ने मधु की तरह नवनीत को भी जीव-बहुल | बतलाते हुए लिखा है कि जो बहुत त्रस जीवों से युक्त मद्य, मांस होने के कारण त्याज्य बताया है। यह भी कहा है कि पाक्षिक आदि निन्दित वस्तु का सेवन नहीं करता, वह दर्शन प्रतिमा का श्रावक को स्थूल-हिंसा, अनृत, स्तेय, मैथुन तथा परिग्रह त्याग | धारी श्रावक है। का भी अभ्यास करना चाहिए। इसी तरह पहली प्रतिमा वाले के लिए त्याज्य रूप से मद्य, ऐतिहासिक दृष्टिसे मूलगुणों के सम्बन्ध में विचार करने | मांसादिक का उल्लेख किया गया है, किन्तु मूलगुण का स्पष्ट पर निम्नलिखित विवरण प्राप्त होता है उल्लेख नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रपाहुड़ में चारित्र को सागार वसुनन्दि श्रावकाचार 12 वीं शती अनुमानित में पहली और निरागार के भेद से दो प्रकार का बतला कर सागार को सग्रन्थ प्रतिमा का स्वरूप बतलाते हुए पांच उदुम्बर और सात व्यसन के और निरागार को परिग्रह रहित कहा है। त्यागी को दर्शन प्रतिमा का धारी श्रावक बतलाया है। आगे सात देशविरत श्रावक के ग्यारह भेदों का उल्लेख करके । व्यसनों का विवेचन करते हुए मद्य, मांस की बुराईयाँ बतायी हैं। कुन्दकुन्द ने पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को साथ ही मधु की भी बुराईयाँ बतलायी हैं । इस प्रकार अष्ट मूलगुण सागार का संयमाचरण बतलाया है। आगे कहा गया है कि इस का निर्देश तो नहीं तथापि ग्रन्थकार को पहली प्रतिमा धारी के द्वारा प्रकार हमने सावयधम्म संयमाचरण का पूर्ण निरूपण किया है। पांच उदुम्बर और तीन मकारों का त्याग इष्ट है, यह स्पष्ट है। कुन्दकुन्द ने श्रावक के मूलगुणों का उल्लेख नहीं किया। मूलगुणों का उल्लेख और उनका विवेचन गृद्धपच्छ उमास्वामी कृत तत्वार्थसूत्र में श्रावक के बारह श्रावक के अष्टमूलगुणों का सर्वप्रथम स्पष्ट निर्देश स्वामी व्रतों का तो विवरण है। किन्तु उसमें भी मूल गुणों का उल्लेख । समन्तभद्र रचित रत्नकरण्डक में मिलता है। उसमें लिखा है नहीं है। जिनेन्द्रदेव मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ पांच अणुव्रतों को तत्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में, भट्ट | गृहस्थ के अष्टमूलगुण कहते हैं। अकलंक ने तत्वार्थराजवार्तिक में और विद्यानन्द ने चामुंडराय 11 वीं शती ने चारित्रसार में तथा "चोक्तं तत्वार्थश्लोकवार्तिक में मूलगुणों का कोई उल्लेख नहीं किया। । महापुराणे" लिख कर निम्नलिखित श्लोक उद्धृत है-- जटासिंहनन्दि के वरांगचरित के बाईसवें अध्याय में श्रावक "हिंसासत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात्। के बारहव्रत गिनाये हैं, किन्तु मूलगुणों का कोई उल्लेख नहीं है द्यूतान्मांसान्मद्यद्विरति गृहिणोऽष्ट सन्तथमी मूलगुणाः ॥" और न मूलगुणों के अन्तर्गत वस्तुओं का ही प्रकारान्तर से कोई अर्थात् स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म उल्लेख है। दान, पूजा, तप और शील को श्रावकों का धर्म बतलाया | और स्थल परिग्रह तथा जुआ, मांस और मद्य से विरति, ये गृहस्थों गया है। के आठ मूलगुण हैं। रविषेण वि.सं.734 के लगभग ने अपने पद्मचरित्र के | आशाधर 13 वीं शती ने अपने सागार धर्मामृत तथा उसकी चौदहवें पर्व में श्रावक धर्म का निरूपण किया है। उसमें बारह | टीका में भी महापुराण के उक्त मत का निर्देश किया है और व्रतों का ही निरूपण किया गया है। मधु, मांस, जुआ, मद्य, रात्रि- टिप्पणी में उक्त श्लोक उद्धत किया है, किन्तु जिनसेन कृत महापुराण भोजन और वेश्या-संगम के त्याग को नियम कहा है, किन्तु | में उक्त श्लोक नहीं मिलता और न उक्त श्लोक के द्वारा कहे गये मूलगुणों का स्वतन्त्र रूप से कोई उल्लेख नहीं है। आठ मूलगुण ही मिलते हैं । अड़तीसवें पर्व में व्रताचरण क्रिया का आगे इसका विवेचन करते हुए रात्रिभोजन वर्जन पर बहुत | वर्णन करते हुए लिखा है कि मधु और मांस का त्याग, पांच जोर दिया गया है। आगे लिखा है कि जो मनुष्य मांस, मद्य, उदुम्बर फलों का त्याग और हिंसादि का त्याग ये उसके सार्वकालक रात्रिभोजन, चोरी और पर स्त्री का सेवन करता है वह अपने इस सदा रहने वाले व्रत हैं। इसमें अष्टमूलगुण शब्द का व्यवहार नहीं जन्म और पर जन्म को नष्ट करता है। किया गया है और मधु के त्याग का विधान किया है, जबकि मद्य जिनसेन ने वि.सं. 840 में अपने हरिवंशपुराण के अठारहवें को नहीं गिनाया है। अतः चारित्रसार में उद्धत उक्त श्लोक के सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन करते हुए पद्मचरित्र की तरह श्रावक साथ इसकी संगति नहीं बैठती। के बारह व्रतों को गिना कर अन्य में लिखा है मांस, मधु, मद्य, द्यूत आ. अमृतचन्द ने पुरूषार्थसिद्धयुपाय में लिखा है कि और उदुम्बरों को छोड़ने तथा वेश्या और पर स्त्री के साथ भोग का हिंसा से बचने की अभिलाषा रखने वाले पुरूषों को सबसे पहले त्याग करने आदि को नियम कहते हैं। इसके पूर्व दसवें सर्ग में भी मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलों को छोड़ने से ही मनुष्य गृहस्थ के पांच अणुव्रतों को बतलाकर दान, पूजा, तप और शील की बुद्धि निर्मल होती है और तभी वह जैन धर्म के उपदेश का को गृहस्थों का धर्म बतलाया है । यद्यपि ऊपर कहे गये नियम में पात्र होता है। यद्यपि इन्हें ग्रन्थकार ने मूलगुण नहीं कहा, किन्तु मूलगुणों की परिगणना हो जाती है, किन्तु मूलगुण रूप से उल्लेख उन्हें अभीष्ट यही प्रतीत होता है कि ये श्रावक के मूलगुण हैं। हरिवंशपुराण में भी नहीं है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में धर्मानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए ग्यारह प्राचार्य, स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर (राज.) क्रमशः... -अगस्त 2003 जिनभाषित " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524276
Book TitleJinabhashita 2003 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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