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गुरु सूरि आचार्य का काम है जिनके आशीर्वाद व आज्ञा से प्रतिष्ठा हो रही है। दिगंबरत्व रुपेण अवगत शब्द के अर्थ को जानना चाहिए। यहाँ दिगंबर होकर काम करे यह अर्थ नहीं निकलता। इसलिये इस ग्रंथ में अर्थ भी नहीं लिखा। साथ ही जनान पसृन्य लोगों को हटाकर इस शब्द से प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर हो रहे है, इसलिये उनके सामने सब नहीं रह सकते, यह मतलब भी नहीं निकालना चाहिये, क्योंकि गुप्त, विशिष्ट मंत्र गुरु एकांत में ही देते है। ये दो पर्दे भी वहाँ लगे रहते हैं।
इन सब गहराइयों को नहीं जानकर केवल ऊपर से ही दिगम्बर होकर गृहस्थाचार्य सूरि मंत्र दे सकता है यह बताया जा रहा है। प्रतिष्ठा पाठ में सूरि मंत्र का उल्लेख तक नहीं । प्राण प्रतिष्ठा से मतलब मूर्ति में दिव्यता अपूर्वता लाना है।
आहार दान प्रतिष्ठा शास्त्र में नहीं है, इसलिये पहले जो पूजा की जाती है वह विपरीत विधि है। माता पिता (नाभिराय मरुदेवी) एक भवावतारी मलमूत्र रहित शरीर वाले महान् व्यक्ति हैं, उनका व तीर्थंकर का पार्ट नहीं किया जाना चाहिये। पूज्य आचार्य श्री शांति सागर जी (दक्षिण) एवं श्री पं. मक्खनलालजी शास्त्री मुरैना ने गजपंथा प्रतिष्ठा में विरोध किया था। मैंने भी अपने प्रतिष्ठा ग्रंथ में जो सुरि मंत्र व प्राण प्रतिष्ठा मंत्र लिखे हैं वे गुरु मंत्र होने से गुप्त रहने चाहिये थे, किंतु हम देख रहे हैं कि साधारण प्रतिष्ठाचार्य भी प्रतिष्ठा करा रहे हैं। और णमोकार मंत्र से सब काम करा रहे हैं, तो उन्हें प्रतिष्ठा का महत्व बतलाना आवश्यक
आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित.
जिस प्रकार नवनीत दूध का सारभूत रूप है, वैसे ही करणलब्धि सब लब्धियों का सार है । प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पाप-पुण्य है, अपने द्वारा किये हुये कर्म है। कर्मों के अनुरूप ही सारा का सारा संसार चल रहा है किसी अन्य बलबूते पर नहीं ।
प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अलग-अलग है और सब स्वाधीन स्वतंत्र है। उस स्वाधीन अस्तित्व पर हमारा कोई अधिकार नहीं जम सकता ।
फोटो उतारते समय हमारे जैसे हाव-भाव होते हैं वैसा ही चित्र आता है, इसी तरह हमारे परिणामों के अनुसार ही कर्मास्रव होता है।
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देव शास्त्र गुरु कहते ही सर्वज्ञता की ओर दृष्टि न जाकर प्रथम वीतरागता की ओर दृष्टि जानी चाहिये क्योंकि वीतरागता से ही सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है।
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हो गया।
वर्तमान कुछ सदोष मुनियों से तो गृहस्थ अच्छे हैं, सूरि मंत्र बाबत धर्म मंगल में प्रकाशन इसी दृष्टि से भी कराया गया होगा। किन्तु निर्दोष मुनि से ही सूरि मंत्र दिलाया जाना चाहिये । गृहस्थाचार्य मंत्र दे रहे हैं यह सर्वथा अनुचित है ।
मेरे प्रतिष्ठा प्रदीप द्वितीय संस्करण में सूरि मंत्र गृहस्थ दे सकता है, यह नहीं है। ब्र. शीतलप्रसाद जी के प्रतिष्ठा पाठ में शास्त्र और लोक विरुद्ध अनेक कथन हैं, जो केवल नाटकीय रुप में मनोरंजन हेतु प्रकाशित हुए हैं। पहले यही उपलब्ध था, जिसका उपयोग हम लोगों ने भी किया था। पीछे प्रतिष्ठा शास्त्र के अध्ययन से कुछ ज्ञात हुआ। 33 वर्ष से प्रतिष्ठा कार्य छोड़ने पर भी परामर्श तो देना ही पड़ता है। आज भी प्रतिष्ठाचार्य मूर्ति के मुख पर धान सहित वस्त्र लपेटते हैं । बाहु में नाड़ा बाँध देते हैं और मूर्ति को तिलक लगाते हैं। यह तपकल्याणक में करते हैं। कई बोलियाँ अनुचित होने लगी हैं। यह सब संस्कृत भाषा व मुख वस्त्र आदि शब्दों का ठीक अर्थ न समझने का परिणाम है।
जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पद्य 50 में सद्गुरु की पूजा कर "करीत्स्यंदनयान वाह्यं नयेत्" का अर्थ है हाथी, रथ, यान, वाहन में बैठने योग्य (प्रतिष्ठाचार्य आदि) को मण्डप में ले जावे किन्तु इसका सद्गुरु को ले जावे यह गलत अर्थ किया जा रहा है। पूर्व प्राचार्य सर हुकमचन्द संस्कृत महाविद्यालय 40, हुकुमचंद मार्ग, मोतीमहल, इन्दौर
कार्य हो जाने पर कारण की कोई कीमत नहीं रह जाती लेकिन कार्य के पूर्व कारण की उतनी ही कीमत है जितनी कार्य की।
साध्य के बारे में दुनिया में कभी विसंवाद नहीं होते, विसंवाद होते हैं मात्र साधन में। मंजिल में विसंवाद कभी नहीं होता, विसंवाद होता है मात्र पथ में ।
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• जुलाई 2003 जिनभाषित
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