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प्रवचन
प्रतिबद्धता
मुनि धर्म निभाना बहुत कठिन है। सिर्फ इतना समझ लीजिये कि ये आग का दरिया है जिसे तैर कर पार करना है। जल की नदी में तैरना सरल है लेकिन अग्नि की नदी में तैरना मुश्किल है, अग्नि पर चला जा सकता है लेकिन तैरा नहीं जा सकता। चारों ओर अग्नि है, धुँआ उठ रहा है मुनिराज उस दरिया में तैरने का साहस कर रहे हैं, लेकिन कर्मों ने साथ नहीं दिया। आत्मा शरीर से अलग होने की स्थिति में आ गयी। शरीर और आत्मा दोनों मिलकर पार करते तो उसमें मार्ग और मंजिल की सुरक्षा हो जाती मार्ग की सुरक्षा शरीर से होती है और मंजिल की रक्षा आत्मा से होती है। छह महीने और आठ समय में 608 जीव सिद्धालय में सिद्ध दशा को प्राप्त होते ही हैं। लेकिन इस शरीर को सायास छोड़ेंगे तो मार्ग का लोप हो जायेगा, मार्ग डूब जाएगा।. क्योंकि शरीर की वीतरागता से मार्ग की रक्षा होती है अर्थात् दूसरे लोग उसके माध्यम से शिक्षा लेकर मार्ग पर चलते रहेंगे मार्ग सुरक्षित रहेगा। आत्मा की वीतरागता से स्व का कल्याण होता है और शरीर की वीतरागता पर कल्याण से सहायक होती है ।
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उन चरम बलिदानी सात सौ मुनि महाराजों से नोकर्म ने कहा कि " आगे हम आपका साथ नहीं दे सकते हमारे लिए प्रतिकूलता आ गई है। आपके अंदर अनंत शक्ति है इसलिए आप समता परिणाम रखिये। आप अपने ज्ञान ध्याने में बँधे रहिये"। शरीर कहता है कि बस में गिरता हूँ अब मेरे सामर्थ्य के बार हो गया है और एक-एक करके 700 मुनियों की काया भूलुंठित हो
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गयी। कौन मुनिराज को? वहाँ की जनता धर्मात्मा थी लेकिन खल की शक्ति ज्यादा होने से धर्मात्मा भी मन मार कर देखते रहे । मुनिराजों के जलते शरीर से अनेक विकृतियाँ प्रकट होने लगी थीं। शरीर अपना धर्म पूर्ण रूप से दिखा रहा था। 700 मुनिराज जिन श्रावकों की आँखों देखे मरण को प्राप्त हो रहे होंगे क्या उन सम्यग्दृष्टियों की कल्पना तुम कर सकते हो ? आँख बन्द करके कल्पना करना कि आपके सामने मुनिराज रत्नत्रयधारी परमेष्ठी पद को धारण करने वाले आचार्य, उपाध्याय, साधु तीनों और एक दो तीन नहीं 700 मुनिराजों का तुम्हारी आँखों देखे उतसर्ग के कारण प्राणान्त हो जाये तब आपकी दशा क्या होगी? एक घटना मुझे याद आती है जब एक मुनि का प्राणान्त करने के लिए शेर आता है, सुअर जो एक सम्यग्दृष्टि था उसने देख लिया कि शेर मुनिराज को मारने आ रहा है अतः वह सम्यग्दृष्टि कहता है कि मेरे घट में जब तक प्राण है तुम मेरे आयतर से प्राण नहीं ले सकते, मेरे उपास्थ के प्राण नहीं ले सकते। हे सिंहराज ! तू सिंहराज है मैं सूकर की पर्याय में हैं, तेरी शक्ति का कोई पार नहीं है और मेरी तुच्छता का कोई पार नहीं है। मेरी काया भी ऐसी है कि जिसे कोई
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मुनि श्री सुधासागर जी
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छू लेतो स्नान करना पड़ता है, मेरा जीवन भी ऐसा है जिसे दुनिया दुर्गन्ध युक्त देखती है। ऐसा दुर्गन्ध करने वाला प्राणी हूँ। उसके बावजूद मेरी आत्मा में यह पहचान है कि ये आराध्य हैं, उपास्य हैं। ये मोक्ष मार्ग पर चलने वाले हैं जिन्होंने सारी दुनिया का हित करने का विचार किया है। ऐसे आयतन पर तू पंजा उठाने का प्रयत्न कर सकता है। पंजे की बात छोड़ दे पंजे की तेरी एक उगंली भी नहीं उठ सकती जब तक मैं जीवित हूँ। कूद गया शेर के सामने अब सोचिये कि शेर और सुअर की लड़ाई में कौन बचेगा और कौन मरेगा। यह तो स्वतः ही सिद्ध है कि सुअर ही मरेगा लेकिन सुअर कहता है कि भली-भाँति मैं जानता हूँ कि मेरा मरण होना निश्चित हैं, मैं तुमसे जीन नहीं सकता हूँ, मैं यह भी जानता हूँ कि मृझमें तेरा सामना करने की शक्ति नहीं है, फिर भी सिंहराज से कहता है कि पहले मेरे से निपट फिर बाद में मुनिराज पर झपट ! दोनों में युद्ध चालू हो गया। सुअर ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। जब कभी कमजोर व्यक्ति भी अपनी पूरी ताकल लगा देता है तो बलवान व्यक्ति भी हार जाता है। दोनों एक दूसरे से युद्ध करते हुए मरण को प्राप्त हुए। मुनिराज बच गये। इसी प्रकार वह गिद्धराज भी जानता था कि रावण के पास चन्द्रहास खडग है अतः मेरा बचना नामुमकितन हैं मैं मर जाऊँ चाहे मेरी शक्ति कम हो जाये लेकिन जब तक मेरी आँखों में ज्योति हैं तब तक मैं अत्याचार सहन नहीं कर सकता। मेरे रहते हुए एक सती का शील भंग व अपहरण नहीं कर सकता । यह कहते हुए वो रावण पर झपट पड़ा। उस सम्यग्दृष्टि का साहय तो देखो कि एक पक्षी होते हुए भी इतने बड़े शक्तिशाली, सम्पन्न राजा जो तीन खंड का अधिपति है उनका सामना करने का साहस कर बैठा । अर्थात् धर्मात्मा व्यक्ति यह नहीं देखता है कि मेरा शत्रु कितना कमजोर है या शक्तिशाली। वो तो यह सोचता है कि कोई भी मेरे होते हुए धर्म पर अँगुली नहीं उठा सकता है। मर गया बेचारा वह गिद्धराज लेकिन अपनी आँखों के सामने सीता का अपहरण नहीं होने दिया। बंद हो गई उसकी आँखें उसके बाद चाहे जो करते रहो।
उसी प्रकार सुअर सोचता है कि मेरे मरने से केवल इतनी ही हानि होगी कि गन्दगी का स्थान साफ नहीं हो सकता यदि मुनिराज जीवित रहे तो ना जाने कितनी आत्माओं को साफ करेंगे कितनी आत्माओं के कषाय और मिथ्यात्व रूप मल को साफ करेंगे, वह सोचता है कि मेरा मरना ही उचित है। मुनिराज का जीना श्रेयस्कर है। उक्त पवित्र परिणामों से मरने की वजह से वो सीधा 16वें स्वर्ग गया व सिंह अपवित्र परिणामों से छठवें नरक गया।
हिंसा दोनों ने की है दोनों ने एक दूसरे को मारा। लेकिन एक मुनिराज की रक्षा के लिए मरा और एक मुनिराज को मारने
मार्च 2003 जिनभाषित
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