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प्रवचन
निर्मल दृष्टि
दर्शन विशुद्धि मात्र सम्यक् दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता होना दर्शन विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्त्वचिंतन से
आचार्य श्री विद्यासागर जी कार्य से कारण की महत्ता अधिक है क्योंकि यदि कारण इसी प्रकार जैनाचार्यों ने बताया है कि आत्मा भिन्न है और न हो तो कार्य निष्पन्न नहीं होगा। फूल न हो तो फल की प्राप्ति नहीं | शरीर भिन्न है। ऊपर का आचरण ये शरीर केवल एक छिलके के होगी।
समान है यह उन्होंने अनुभव द्वारा बताया है किन्तु हम अनुभव कुछ लोग ऐसे भगवान् की कल्पना करते हैं जो उनकी | की बात भी नहीं मानते। हमारी स्थिति बच्चे जैसी है। दीपक सब इच्छाओं की पूर्ति करे। 'खुदा महरबान तो गधा पहलवान' जलता है तो बच्चे को यह समझाया जाता है कि इसे छूना नहीं। ऐसा लोग कहते हैं। इसीलिए महावीर को बहुत से लोग भगवान् उसे दीपक से बचाने की भी चेष्टा की जाती है किन्तु फिर भी वह मानने को तैयार नहीं। किन्तु सत्य/तथ्य ये हैं कि भगवान् बनने से बच्चा उस दीपक पर हाथ धर ही देता है और जब वह एक बार पहले तो शुभाशुभ कार्य किए जा सकते हैं, भगवान् बनने के बाद जल जाता है तो फिर वह उस दीपक के पास अपना हाथ नहीं ले नहीं।
जाता। हमारी दृष्टि का परिमार्जन तभी समझा जायेगा, जब हम भगवान् महावीर जब पूर्व जीवन में नंदराज चक्रवर्ती थे, प्रत्येक वस्तु को उसके असली रूप में देखें/समझें। तब उनको एक विकल्प हुआ कि "मैं सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण यह दर्शन विशुद्धि लाखों-करोड़ों में से एक को होती है, करूँ" और इसी विकल्प के फलस्वरूप उन्हें तीर्थकर प्रकृति का |
| किन्तु होगी ये विशुद्धि केवल मन्दकषाय में ही। शास्त्रीय भाषा में बंध हुआ। कल्याण करने के लिए भी बंध स्वीकार करना पड़ा। दर्शन-विशुद्धि चौथे गुणस्थान में आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग ये बंधन चेष्टा पूर्वक किया जाता है तो बंध के पश्चात् मुक्ति होती तक हो सकती है। सद्गृहस्थ की अवस्था से लेकर उत्कृष्ट मुनि है। यदि माँ केवल अपनी ही ओर देखे तो बच्चों का पालन सम्भव की अवस्था तक यह विशुद्धि होती है। श्रेणी में तीर्थंकर प्रकृति नहीं होगा।
का बन्ध हो सकता है किन्तु होगा मंद कषाय के सदभाव में। दसरे 'पर' के कल्याण में भी 'स्व' कल्याण निहित हैं ये बात | के कल्याण की भावना का विकल्प जब होगा, तब बंध होगा। दूसरी है कि फिर दूसरे का कल्याण हो अथवा न भी हो। किसान | तीर्थंकर प्रकृति एक निकाचित बंध है जो मोक्ष ही ले जायेगा। की भावना यही रहती है कि "वृष्टि समय पर हुआ करे" और कल शास्त्रीजी मेरे पास आये थे। साथ में गोम्मटसार की वृष्टि तो जब भी होगी सभी के खेतों पर होगी किन्तु जब किसान | कुछ प्रतियाँ लाये थे। उसमें एक बात बड़े मार्के की देखने को फसल काटता है तो अपनी ही काटता है, किसी दूसरे की नहीं। | मिली। तीर्थंकर प्रकृति का उदय चौदहवें गुणस्थान में भी रहता अर्थात् कल्याण सबका चाहता है किन्तु पर्ति अपने ही स्वार्थ की है। जब जीव मोक्ष की ओर प्रयाण करता है तब यह तीर्थंकर करता है।
प्रकृति अपनी विजयपताका फहराते हुए चलती है। इस प्रकार यह दर्शन-विशुद्धि मात्र सम्यग्दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता | स्पष्ट है कि कषायों से ही कर्मबन्ध होता है और कषायों से ही का होना दर्शन-विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्त्व कर्मों का निर्मूलन होता है। जैसे पानी से ही कीचड़ बनता है पानी चिन्तन से।
में ही घुलकर गंगा के जल का भाग बन जाता है। जिसे लोग सिर हमारी दृष्टि बड़ी दोषपूर्ण है। हम देखते तो अनेक वस्तुएँ | पर चढ़ाते हैं और उसका आचमन करते हैं। 'काँटा ही काँटे को हैं किन्तु उन्हें हम साफ नहीं देख पाते। हमारी आँखों पर किसी न | निकालता है, यह सभी जानते हैं। किसी रंग का चश्मा लगा हुआ है। प्रकाश का रंग कैसा है, आप दर्शन-विशुद्धि भावना और दर्शन में एक मौलिक अन्तर बतायें। क्या यह लाल है? क्या हरा या पीला है? नहीं प्रकाश का | है। दर्शन विशुद्धि में केवल तत्त्वचिन्तन ही होता है, विषयों का कोई वर्ण नहीं है। वह तो वर्णातीत है। किन्तु विभिन्न रंग वाले | चिन्तन नहीं चलता किन्तु दर्शन में विषय चिन्तन भी संभव है। काँच के सम्पर्क से हम उस प्रकाश को लाल, पीला या हरा कहते दर्शन-विशुद्धि भावना चार स्थितियों में भायी जा सकती हैं, इसी प्रकार हमारा स्वरूप क्या है? 'अवर्णोऽहं' मेरा कोई वर्ण है। प्रथम मरण के समय, द्वितीय भगवान् के सम्मुख, तृतीय नहीं, 'अरसोऽहं' मुझ में कोई रस नहीं, 'अस्पर्शोऽहं' मुझे छुआ अप्रमत्त अवस्था में और चौथे कषाय के मन्दोदय में। नहीं जा सकता। यह मेरा स्वरूप है। किन्तु इस स्वयं को आप तीर्थंकर प्रकृति पुण्य का फल है "पुष्यफला अरहंता।', पहिचान नहीं पाते। यही है हमारी दृष्टि का दोष।
किन्तु इसके लिये पुण्य कार्य पहले होना चाहिए। प्रवृत्ति ही निवृत्ति हम पदार्थों में इष्टअनिष्ट की धारणा बनाते हैं। कुछ पदार्थों की साधिका है । राग से ही वीतरागता की ओर प्रयाण होता है । एक को इष्ट मानते हैं, जिन्हें हम हितकारी समझते हैं। कुछ पदार्थों को सज्जन ने मुझसे कहा-महाराज, आप एक लंगोटी लगा लें तो अनिष्ट मानते हैं, अहितकारी समझते हैं। पर वास्तव में कोई पदार्थ अच्छा हो, क्योंकि आपके रूप को देखकर राग की उत्पत्ति होती न इष्ट है और न अनिष्ट है । इष्ट-अनिष्ट की कल्पना भी हमारी दृष्टि | है।" मैने कहा-"भैया, तुम जो चमकीले-भड़कीले कपड़े पहिनते का दोष है।
| हो, उससे राग बढ़ता है अथवा यथाजात अवस्था से । नग्न दिगम्बर
- मार्च 2003 जिनभाषित 3
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