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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- शैलेन्द्र समटौरिया
6. ब्रहानेमिदत्त कृत आराधना कथाकोश में इस प्रकार जिज्ञासा- क्या आचार्य समन्तभद्र को तीर्थंकर प्रकृति का | कहा हैबंध हुआ तथा वे आगे तीर्थंकर बनेंगे या नहीं। सप्रमाण उत्तर दें?
कृत्वा श्री मज्जेिन्द्राणां शासनस्य प्रभावनाम्। समाधान- आचार्य समन्तभद्र इसी पंचमकाल में हुय है।
स्वमोक्षदायिनी धीरा भावितीर्थकरो गुणी।। श्री कर्मकाण्ड में इस प्रकार कहा है -
(उपरोक्त सभी प्रमाणों के संकलन का श्रेय स्वर्गीय पं. "तित्थयर बंध पारम्भ्या णरा केवलि दुगंते" ।।93 ।। | पन्नालाल जी सागर को है)।
अर्थ- तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ कर्मभूमि के उपरोक्त सभी प्रमाण आचार्य समन्तभद्र के भावि तीर्थकरत्व मनुष्य के द्वारा केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही होता है। का समर्थन करने वाले हैं, तथा चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के (जबकि आचार्य समन्तभद्र को केवली तथा श्रुतकेवली का पादमूल | मध्य के हैं। परन्तु तिलोयपण्णत्ति में जहाँ भावी तीर्थंकरों का उपलब्ध नहीं था) टीका में यह भी लिखा है कि केवली वा श्रुत | उल्लेख है वहाँ आचार्य समन्तभद्र की कोई चर्चा नहीं है। अत: केवली के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध का नियम इस विषय का प्रबल आधार खोजा जाना चाहिये। इसलिये है कि अन्य स्थान पर ऐसी विशुद्धता नहीं होती जो जिज्ञासा- भगवान् शान्ति नाथ की पूजन में (हरी द्रोपदी तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ कर सके। इस प्रमाण से तो ऐसा ही | धातकी खण्ड माँही) इसका क्या अर्थ लगाना चाहिये? मानना चाहिए कि आचार्य समन्तभद्र को इस भव में तीर्थंकर
समाधान- इन पंक्तियों का तात्पर्य श्री हरिवंश पुराण की प्रकृति के बंध का प्रारंभ नहीं हुआ। (वर्तमान के जो आचार्य एवं निम्न कथा से समझना चाहिये। एक बार नारद पाण्डवों के महल विद्वतगतण दोनों केवली के पादमूल के बिना भी तीर्थंकर प्रकृति | में आये तथा द्रोपदी के घर गये। द्रोपदी आभूषण धारण करने में के बंध का प्रारंभ मानते हैं, उनके अनुसार आचार्य समतन्भद्र को | व्यस्त थी अत: वह नारद के प्रवेश को न जान सकी। इससे नारद इस भव में तीर्थकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ कदाचित संभव हो | जी अत्यन्त रूष्ट हुये और द्रोपदी को दुःख देने का निश्चय करके सकता है) आचार्य समन्तभद्र भविष्य में कभी तीर्थंकर बनेगें। आकाश मार्ग से पूर्व घातकीखण्ड के भरतक्षेत्र की अमरकंकोपुरी इसके कुछ उपलब्ध प्रमाण इस प्रकार हैं :--
के राजा पनाथ से मिले। नारद ने पद्मनाभ से द्रोपदी के रूप का 1. राजा बलिकथे में आचार्य समन्तभद्र को तपस्या द्वारा अतिशय वर्णन कर राजा पद्मनाथ के चित्त में उसके प्रति उत्कंठा चारण ऋद्धिधारी बताते हुये उन्हें आगामी तीर्थंकर कहा है- समीचीन उत्पन्न कर दी। और द्रोपदी का पूरा पता बताकर चले गये। पद्मनाभ धर्मशास्त्र प्रस्तावना पृ. संख्या 50
ने संगम नामक देव की आराधना कर सोती हुयी ट्रोपदी को 2. आप्त मीमांसा की प्रस्तावना क पृ. 5 में भाषाकार पं. | उठवाकर अपनी नगरी में बुला लिया। द्रोपदी ने जगने पर राजा से मूलचन्द्र शास्त्री, श्री महावीर जी, ने निम्न गाथा लिखी हैं- उसके समक्ष अपना प्रस्ताव रखा । द्रोपदी अत्यन्त दुखी हुयी और
अट्ठहरी णव पडिहरि चक्कि -चउक्कं य एय बलभद्दो।। उसने अपनी पति अर्जुन के दर्शन होने तक आहार का त्याग कर
सेणिय समंतभद्दासे तित्थयरा हंति णियेमेण! दिया और पदानाभ के हठ को देखकर बोली "यदि मेरे आत्मय
अर्थ- आठ नारायण, नौ प्रतिनारायण, चार चक्रवर्ती, एक । जन एक माह के भीतर यहाँ नहीं आते हैं तो तुम्हारी जो इच्छा हो बलभद्र, श्रेणिक तथा समंतभद्र ये चौबीस महापुरुष आगे तीर्थंकर सो करना" और स्वयं भगवान् के ध्यान, स्तवन् में लग गई। होंगे।
द्रोपदी के अचानक अदृश्य हो जाने पर पाण्डवों में शोक छा गया 3. वीर विक्रान्त की प्रशस्ति में इस प्रकार कहा है- और उन्होंने श्री कृष्ण को सभी समाचार बताया। एक दिन अचानक श्री मूलसंघ व्योमेन्दुभारते भावितीर्थकृत।
नारद जी श्री कृष्ण की सभा में आये और उन्होंने द्रोपदी की पूरी देशे समन्तभद्राख्यो मुनिर्जीयात्पद्दधिकः ।।
जानकारी दी। श्री कृष्ण तब द्रोपदी को लाने के लिए रथ पर 4. जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय नामक ग्रंथ में भी इस प्रकार बैठकर अधिष्ठाता देव की आराधना करके उसकी सहायता से कहा है
लवणसमुद्र का उल्लंघन कर घातकीखण्ड द्वीप पहुँच गये। समाचार श्री मूलसंघ व्योमेन्दुभारते भावतीर्थकृत।
मिलते ही राजा पदानाभ की सेना, नगरी से आयी लेकिन पाँची देशे समन्तभद्राख्यो श्रीयात्प्राप्तपद्दधिकः॥
पाण्डवों ने उस मारकर भगा दिया। राजा पद्मनाभ नगर गके द्वार 5. श्री श्रतुसागर सूरि ने षट्पाहुड की टीका में इस प्रकार | कर भीतर छुप गया था तब श्रीकृष्ण ने अपने पैरों मे आघात से
उसके महल आदि को नष्ट करना प्रारंभ कर दिया। उक्तं च समन्तभद्रेणोत्सर्पिणिकाले आगामिनि
कोई उपाय न देख राजा द्रोपदी की शरण में आया और भविष्यतीर्थकरपरमदेवेन, काले कल्पशतेऽति च । क्षमा माँगते हुए अभयदान की प्रार्थना की। द्रोपदी ने उस स्त्री 28 मार्च 2003 जिनभाषित
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