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बोझ को अलग रख देते हैं और न केवल कृति वरन् कृतिकार के। (4) मोक्षमार्ग के साधनभूत तीन कारण-सम्यक्दर्शन स्वरूप को गढ़ने में गुरु की असीम कृपा का अनुग्रह मान रहे हैं। और सम्यग्ज्ञान का अर्थग्राही विवेचन है, वहीं पाठकों को यह एकलव्य-सा यह महान शिष्य अपने गुरुवर क लिए 'अकिञ्चन' | भ्रम हो सकता है कि सम्यक् चारित्र का वर्णन एक ही पैरा में क्यों बन गया।
समाप्त कर दिया गया। ऐसा नहीं है। जैनाचार और मुनि आचार कृति में प्रतिपाद्य विषय
(श्रमणाचार) के अंतर्गत लगभग 37 पृष्ठों में सम्यक्चारित्र का (1) जैन इतिहास की प्रस्तुति में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव | ही विवेचन किया गया है। को वैदिक साहित्य (ऋग्वेद) बौद्धदर्शन, हिन्दू पुराणों तथा । | (5) आत्म विकास के क्रमोन्नत सोपान के रूप में गुणस्थानों मोहनजोदड़ो के पुरातात्त्विक प्रमाणों आदि के द्वारा जैनधर्म के | का इतना सर्वग्राही परन्तु संक्षिप्त विवेचन पहली बार पढ़ा है। आद्य प्रवर्तक के रूप में सिद्ध किया है और तीर्थंकर महावीर के | इसमें मुनिश्री के तलस्पर्शी स्वाध्याय की ही विशिष्टता है, जो साथ भगवान् नेमिनाथ व पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक महापुरुष | विषय को बोधगम्य बनाकर इसे आत्मोत्थान का दिग्दर्शक कह सिद्ध किया। भगवान् महावीर के बाद श्वेताम्बर मत का प्रादुर्भाव | दिया। गुणस्थानों के आरोह/अवरोह का चार्ट कमाल का है। बताते हुए दिगम्बरत्व की प्राचीनता पर प्रकाश डाला है।
(6) अनेकान्त और स्याद्वाद जैसे विस्तृत दर्शन को मात्र (2) सात तत्त्वों के विवेचन के साथ द्रव्य की। 13-14 पृष्ठों में निबद्ध कर देना मुनिश्री के गहन अध्ययन का नित्यानित्यात्मकता और गुणपर्याय का विवेचन नय आगम के | सुफल है।
आलोक में प्रस्तुत किया गया। जीव (आत्मा) की वैज्ञानिकता को | विस्तार से बोलना और लिखना ज्यादा आसान है परन्तु दर्शाने के लिए अनेक वैज्ञानिकों के विचार प्रस्तुत किए। । 100 पृष्ठ की विषय वस्तु को 10 पृष्ठ में व्याख्यापित कर देना
अजीव तत्त्व में पुद्गल द्रव्य की वैज्ञानिकता को स्पष्ट | श्रमसाध्य और प्रतिभा की बात है। कृति इस दृष्टि से अपनी किया साथ ही यदि धर्म,अधर्म, आकाश और काल द्रव्य की | विशिष्ट पहचान लिए है। वैज्ञानिक आवधारणाओं का भी समावेश कर लिया जाता तो मुनिश्री की लेखन शैली के साथ प्रवचन शैली भी ऐसी ही शोधार्थियों को एक गाइड लाईन मिल जाती।
मौलिक/रोचक/सुमधुर/श्रवणीय/संक्षिप्त होती है। सुनने के बाद (3) बंध तत्त्व के अन्तर्गत कर्म सिद्धान्त जैसे दुरूह विषय | और सुनने की ललक आदि श्रोता में बनी रहे तो यह प्रवचन कला का विवेचन अत्यन्त रोचक शैली में मात्र 35 पृष्ठों में समाहित कर की श्रेष्ठ प्रस्तुति मानी जाती है। मुनिश्री इसमें सिद्धहस्त हैं। अधिक गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), धवला पुस्तक और सर्वार्थसिद्धि जैसे | क्या कृति को पढ़कर ही इसका आनंद लिया जा सकता है जैसे महान ग्रन्थों का पराग प्रस्तुत कर दिया) आयु कर्मबंध का नियम | सुस्वाद भोजन को मुख में ग्रहणकर ही उसके रसों का अनुभव सोदाहरण और कर्मों की 10 अवस्थओं का प्रस्तुतीकरण द्रष्टव्य है।। किया जा सकता है। ग्रन्थ समीक्षा
महायोगी महावीर
. डॉ. विमला जैन
सहसम्पादिका- 'जैन महिलादर्श' प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक पूज्य मुनि श्री समता सागर जी | की संक्षिप्त विवेचना है। अतिशय कारी प्रतिमा की चर्चा में हैं। प्रस्तुत कृति महावीर को जानने/समझने तथा महावीरत्व को | लेखक ने श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र की विशेषता बताई है। अपने अंदर में जगाने की जिनकी भावना है उन पाठकों/श्रद्धालुओं | | अन्त में देशी-विदेशी मनीषियों के विचार दिये गये हैं। भगवान् के प्रबोधनार्थ प्रस्तुत की गई है। लेखक ने अतीत के आँगन में | महावीर के विषय में ज्ञातव्य बातें बताकर पाठकों का ज्ञानवर्धन पूर्व पीठिका दी है, काल प्रवाह और तीर्थकर के विषय में किया है। लेखक ने "महायोगी महावीर" की लघु पुस्तक में वे प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में जैन जैनेतर सन्दर्भ | सभी तथ्य समन्वित किये है जो एक सामान्य पाठक की जिज्ञासा तथा भगवान् महावीर के पूर्व जन्मों की श्रृंखला प्रस्तुत की है। को शान्त कर सकते हैं। जीवनी रूप में पाठक पुस्तक को तत्पश्चात् कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ, रानी त्रिशला के यहाँ । आद्योपान्त पढ़कर ही छोड़ता है। भाषा सरल सुबोध तथा प्रवाहपूर्ण गर्भावतार तथा सातिशय पुण्य शाली तीर्थंकर वर्द्धमान के है। पुस्तक का मुख पृष्ठ-नंद्यावर्त महल से निकल कर कुमार जन्मकल्याणकोत्सव की परिचर्चा है। कुमार काल के बाद धर्म वर्द्धमान को राजसी वेश-भूषा में शान्ति की खोज में जाते हुए चक्रवर्ती और उपसर्गजयी मुनि महावीर के चारित्रचक्रवर्ती स्वरूप दिखाया है। नीचे वृक्ष तले शिला खण्ड पर नग्न वीतरागी मुद्रा की चर्चा है। कैवल्य की प्राप्ति, समवशरण तथा 66 दिन बाद ध्यानस्थ है। चित्र महायोगी की पूरी कहानी कह देता है और दिव्य ध्वनि प्रकट होने की विवेचना है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या पाठक उस मोक्ष पुरुषार्थी की कहानी में तल्लीन हो जाता है। की पावन प्रत्यूष वेला में पावापुर के पावासरोवर के पास भगवान् लेखक अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है। पाठक की महावीर मोक्ष पद को प्राप्त कर लेते हैं। उसके बाद की विशेष | आत्मीयता के साथ/समीक्षात्मक दृष्टि से पुस्तक बहुआयामी ज्ञातव्य बातों पर भी लेखक ने समीचीन प्रकाश डाला है। । लक्ष्य के साथ सम्पूर्ण है। मानवीयता से ओत-प्रोत हर व्यक्ति
प्रभु महावीर की प्रभुता का प्रभाव तथा उनके सिद्धान्तों | को पठनीय, चिन्तनीय तथा संग्रहणीय है।
-अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 33
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