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________________ गुरु-गरिमा आचार्य श्री विद्यासागर जी जब तक उपासक स्वयं उपास्य नहीं बन जाता तब तक उसे उपास्य की उपासना करना आवश्यक है। जिस तरह पिता बच्चे के समान धीमी चाल से चलकर उसे चलना सिखाता है उसी प्रकार गुरु, शिष्य जनों को मोक्ष मार्ग में चलना सिखाता है। यद्यपि बच्चा चलता अपने पैरों से है, तथापि पिता की अंगुली उसे सहायक होती है। शिष्य मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति स्वयं करता है परन्तु गुरु की अंगुली, गुरु का इंगित उसे आगे बढ़ने में सहायक होता है। गुरु का स्थान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सिद्ध तो बोलते नहीं, साक्षात् अरहंत बोलते हैं, उनका इस समय अभाव है। स्थापना निक्षेप से अरहंत हैं, परन्तु अचेतन होने के कारण उनसे शब्द निकलते नहीं हैं। अत: मोक्ष मार्ग में गुरु ही सहायक सिद्ध होते हैं। मार्गचलते समय यदि कोई बोलने वाला साथी मिल जाता है तो मार्गचलना सरल हो जाता है। गुरु-निर्ग्रन्थ साधु, हमारे मोक्ष मार्ग के बोलने वाले साथी हैं। इनके साथ चलने से मोक्ष का मार्ग भी सरलहो जाता है। अरहंत भगवान् के समवशरण में गणधर होते हैं, वे गुरु ही कहलाते हैं । नयविवक्षा से कहा जाए तो देव और गुरु में अन्तर नहीं है। चार और पाँच में क्या अन्तर है? आप कहेंगे एक का अन्तर है, पर एक का अन्तर तो तीन और पाँच के बीच में होता है, चार और पाँच के बीच में नहीं। अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ जिसने अज्ञानरूप तिमिर से अन्धे मनुष्यों का चक्षु ज्ञानरूपी अञ्जन की सलाई से उन्मीलित कर दिया है उस गुरु के लिए नमस्कार हो। नेत्रदान महादान कहलाता है, जिस गुरु ने अन्तर का नेत्र खेल दिया है उसकी महिमा कौन कह सकता है? जिस प्रकार दिशाबोधक यंत्र सही दिशा का बोध कराता है। विषयभोग की दिशा सही दिशा नहीं है, उसका बोध कराने वाला कुगुरु कहलाता है। और जो सिद्ध गति का मार्ग दिखलाता है वह सुगुरु है। हमें भावना रखनी चाहिए कि ऐसे सुगुरु सदा हमारे हृदय में निवास करें। वीतराग गुरु ही शरणभूत हैं। रागीद्वेषी गुरु स्वयं संसार के गर्त में पड़े हुए हैं, वे दूसरे का उद्धार क्या करेंगे। संसार के प्राणी भेड़ के समान होते हैं। वे विचार किये बिना ही दूसरे का अनुसरण करने लगते हैं। परन्तु गुरु विवेक मार्ग का प्रदर्शन करते हैं। गुरु कुटुम्ब ममतारूपी महागर्त से भव्यप्राणी को हाथ का सहारा देकर बाहर निकालते हैं। समन्तभद्र आचार्य ने गुरु का लक्षण बताया है: विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ जो विषयों की आशा से रहित हैं, आरम्भ से रहित हैं परिग्रह से रहित हैं तथा ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरक्त रहते हैं, वे तपस्वी गुरु कहलाते हैं। अथवा 'ज्ञानं च ध्यानं च इति ज्ञानध्याने, ते एव तपसी ज्ञानध्यानतपसी तत्र अनुरक्त इति ज्ञानध्यान तपोरक्तः अनुरक्त रहते हैं। स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों उत्कृष्ट तप हैं अत: इनमें अनुरक्त रहने की बात कही गयी है। देखा आपने? यह जीव तपस्वी कब बन सकता है? जब ज्ञान और ध्यान में रँग गया हो। ज्ञान-ध्यान में कब रँगता है प्राणी, जब वह परिग्रह छोड़ देता है। परिग्रह कब छूटता है? जब आरम्भ छूट जाता है। आरम्भ कब छ्टता है? जब विषयों की आशा छूट जाती है। तात्पर्य यह है कि तपस्वी या निर्ग्रन्थ गुरु बनने के लिये पञ्चेन्द्रियों के विषयों की आशा को सबसे पहले छोड़ना पड़ता है। पेट्रोल जाम हो जाने से जब गाडी स्टार्ट नहीं होती है तब ड्रायवर उसे धक्का लगवाकर स्टार्ट कर लेता है। गुरु भी तो शिष्यों को धक्के दे-देकर ही आगे बढ़ाते हैं। स्वयंबुद्ध मुनि थोड़े होते हैं, बोधित बुद्ध ज्यादा होते हैं। बोधित बुद्ध वे कहलाते हैं जिन्हें गुरु समझाकर चारित्र के मार्ग में आगे बढ़ाते हैं। "मातेव बालस्य हितानशास्ता" गरुमाता के समान हितकारी है। बालक पिता से भयभीत रहता है, वह डरते-डरते उनके पास जाता है। परन्तु माता के पास निर्भय होकर जाता है, उससे अपनी आवश्यकता पूरी कराता है। इसी प्रकार भव्य प्राणी देव के पास पहुँचने में संकोच करता है। साक्षात् अरहंत देव के दर्शन तो कर सकता है, पर उन्हें छू नहीं सकता है। परन्तु गुरु के पास जाने में, उनसे बात करने में कोई संकोच नहीं लगता। जिस प्रकार कोई कारीगर मकान ईंट-चूना लगाकर बनाते हैं और कोई उसे सुसज्जित करते हैं, इसी प्रकार माता-पिता मनुष्य को जन्म देते हैं पर गुरु उसे सुसज्जित कर सब प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण करते हैं। गुरु, शिष्य की योग्यता देखकर उसे उतनी देशना देते हैं, जितनी को वह ग्रहण कर सकता है। माँ ने लड्डू बनाये, बच्चा कहता है, मैं तो पाँच लड्डुलूँगा। माँ कहती है कि लड्डु तेरे लिये ही बनाये हैं, पर तुझे एक लड्डू मिलेगा क्योंकि तू पाँच लड्डू खा नहीं सकता। बच्चा कहता है तुम तो पाँच-पाँच खाती हो, मुझे क्यों नहीं देती, क्या मेरे पेट नहीं है? माँ कहती है पेट तो है, पर मेरे जैसा बड़ा तो नहीं है। तात्पर्य यह है कि माँ बच्चे को उसके ग्रहण करने योग्य ही लड़ड़ देती है, अधिक नहीं। आपलोग जितना ग्रहण करते हैं उतना हजम कहाँ करते हैं, हजम कर सको उसे जीवन में उतार सको, तो एक दिन की देशना से ही काम हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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