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नारी-लोक
धर्ममाता चिरोंजाबाई
शिक्षा और संस्कृति के उत्थान की महान प्रेरिका नारी के रूप में चिरोंजाबाई जी का अग्रणी स्थान है। वे श्री गणेशप्रसादजी वर्णी की धर्ममाता के रूप में विख्यात हुईं हैं। सभी उन्हें 'बाईजी' कहकर पुकारते थे। उनका जन्म शिकोहाबाद के एक धार्मिक परिवार में हुआ था। श्री मौजीलालजी उनके पिता थे। उन्हें मातापिता से श्रेष्ठतम संस्कार मिले और सामान्य शिक्षा भी प्राप्त की। गृहस्थ जीवन में प्रवेश
चिरोंजाबाई के 18 वर्षीया होने पर सिमरा ग्राम (जिलाटीकमगढ़, म.प्र.) के निवासी श्री भैय्यालालजी सिंघई से उनका पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ। नवदम्पत्ति ने अपना गृहस्थ जीवन आरंभ किया।
तीर्थयात्रा, पतिवियोग एवं आत्मबोध
विवाह के कुछ समय पश्चात् ही नवदम्पत्ति ने तीर्थयात्रा करने का संकल्प कर घर से प्रस्थान किया। तीर्थों की वन्दना करते हुए जब वे पावागढ़ पहुँचे तो वहीं पति के देहावसान की अनहोनी घटना घट गयी। वे वैधव्य वेदना से इतनी अधिक विचलित/ व्यथित हो गयीं कि आत्महत्या करने का निश्चय कर कुएँ पर पहुँचीं, पर धार्मिक सुसंस्कारों के प्रभाव से तुरन्त ही उनका विवेक जागृत हुआ । उन्हें यह बोध हो गया कि जिसका संयोग होता है उसका वियोग अवश्य ही होता है। आत्मबोध होते ही आत्महत्या का घृणित विचार उन्होंने सदा के लिए त्याग दिया, वे वापिस लौटीं और जीवन पर्यन्त एक बार भोजन और दो बार जलग्रहण का नियम लेकर अपने आत्महत्या के घृणित विचार का पश्चात्ताप किया। गृहनगर आकर चिरोंजाबाई ने सर्वप्रथम कर्जदार कृषकों के कर्ज माफ कर दिए। अब वे स्वाध्याय और ज्ञानीजनों की सत्संगति में समय बिताने लगीं।
धर्मपुत्र की प्राप्ति व शिक्षा संस्कृति के उत्थान में योगदान
एक बार बाईजी के घर एक बीसवर्षीय संकोची, ज्ञानपिपासु, उदार और दृढ़ प्रतिज्ञ युवक भोजन हेतु आया। इस युवक का नाम था, गणेशप्रसाद इनको देखकर चिरोंजाबाईजी का मातृहृदय उमड़ पड़ा। उनके वक्षस्थल से दुग्धधारा बह निकली, वह उन्हें जन्मजन्मान्तर का पुत्र प्रतीत हुआ। उन्होंने श्री गणेशप्रसादजी को धर्मपुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया । धर्मपुत्र के मन में तीव्र ज्ञानपिपासा थी। वे संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि विद्याओं के पंडित बनना चाहते थे, पर ज्ञान प्राप्ति के साधनों का अभाव था। माता चिरोंजाबाई जी ने इसे सहज ही दूर कर उन्हें अध्ययनार्थ बनारस भेज दिया। यहीं के एक विद्वान् ने साम्प्रदायिक संकीर्ण भावना के कारण उन्हें पढ़ाना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, उन्होंने
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डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र' गणेशप्रसाद जी का अपमान भी किया। उन्हें अपनी धर्ममाता का पढ़ाने का स्वप्न अधूरा प्रतीत होने लगा । पुत्र का अपमान भारत के लिए वरदान बन गया। बाईजी व अन्य विद्वानों ने गणेशप्रसादजी को बनारस में ही एक महाविद्यालय खोलने हेतु प्रेरित किया । उन्होंने दानरूप में प्राप्त एक रुपये से चौसठ पोस्टकार्ड खरीदे और समाज के विशिष्ट व्यक्तियों को महाविद्यालय खोलने की इच्छा से अवगत कराया। सभी ने उनके इस विचार की सराहना / समर्थन करते हुए यथाशक्ति सहयोग प्रदान किया। परिणामस्वरूप श्रुत पंचमी के दिन सर्वप्रथम 'स्याद्वाद संस्कृत महाविद्यालय काशी' की स्थापना हुई।
अपनी धर्ममाता से मार्गदर्शन प्राप्त कर गणेशप्रसाद जी ने गुरु अम्बादासजी एवं श्री जवाहरलाल नेहरू के पिता पं. मोतीलाल नेहरू की सहायता से काशी विश्वविद्यालय में जैनदर्शन व न्याय
का अध्ययन आरम्भ कराया ।
निर्वाण संवत् 2435, अक्षय तृतीया के दिन बुंदेलखण्ड के केन्द्रस्थल सागर में सत्तर्क सुधा तरंगिणी जैन पाठशाला की स्थापना भी चिरोंजाबाईजी व गणेशप्रसादजी वर्णी के प्रयास से हुई जो आज श्री वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी के नाम से सुचारुरूप से चल रही है।
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कटनी में पाठशाला, खुरई में 'वर्णी गुरुकल महाविद्यालय' जबलपुर में 'वर्णी गुरुकुल महाविद्यालय', बीना में 'नाभिनन्दन दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, द्रोणगिरि तीर्थक्षेत्र पर 'श्री गुरुदत्त दिगम्बर जैन पाठशाला', पपोरा तीर्थक्षेत्र पर श्री वीर विद्यालय', पठा ग्राम में 'श्री शान्तिनाथ विद्यालय', सादूमल, मालथौन, मड़ाबरा, बरुआ सागर, शाहपुर में विद्यालयों की स्थापना हुई जिनकी मूल प्रेरणास्रोत 'बाईजी' ही थीं। सन् 1935 में खतौली में स्थापित 'कुन्दकुन्द विद्यालय' ने आज महाविद्यालय का रूप ले लिया है। इसी प्रकार ललितपुर में स्थापित वर्णी इन्टर कॉलेज एवं महिला इन्टर कॉलेज वर्तमान में वर्णी जैन महाविद्यालय के रूप में गतिशील हैं।
शिक्षा संस्थाओं के साथ उदासीन आश्रमों की स्थापना में भी बाईजी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्दौर, कुण्डलपुर, ईसरी आदि में स्थापित उदासीन आश्रम बाईजी व वर्णीजी की ही देन हैं।
शिक्षा संस्थाओं व उदासीन आश्रमों की स्थापना हेतु बाईजी, गणेशप्रसादजी वर्णी, बाबा भागीरथ वर्णी, दीपचन्द्रजी वर्णी आदि विद्वानों के साथ आर्थिक सहयोग हेतु गाँव-गाँव गर्यो, दीर्घकाल तक तपस्या की और पूर्णरूपेण सफल हुईं।
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अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 17
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