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कारण उसका मूल होता है वैसे ही सम्यग्दर्शन ज्ञानादि की स्थिति । देशनालब्धि है। का कारण है।
4. प्रायोग्यलब्धि - ज्ञानावरण आदि कर्मों की जो उत्कृष्ट सम्यक्त्व की महिमा का व्याख्यान करने के साथ मोक्षमार्ग | स्थिति है, उसे विशुद्ध परिणामों द्वारा घटा-घटा के केवल अन्तः में सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान क्यों दिया गया है इस शंका का | कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थापित करना तथा पाषाण अस्थि, दारु समाधान भी आचार्यों ने किया है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने “सम्यग्दर्शन- | और लता रूप चार प्रकार की जो अनुभागशक्ति है, उसे घटाकर ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" सूत्र में सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान द्वितीय स्थानीय दारु और लतारूप स्थापित करना प्रायोग्यलब्धि दिया है। इसके टीकाकार पूज्यपाद, भट्टाकलंक देव, विद्यानन्दि प्रभृति आचार्यों ने स्वयं शंका उठायी है कि सम्यक्त्व को प्रथम करणलब्धि- अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण स्थान क्यों दिया और सभी ने एक ही समाधान दिया कि सम्यग्दर्शन | परिणामों की प्राप्ति होना करणलब्धि है। होने पर ही ज्ञान में सम्यक्पना आता है। जैसा कि तत्त्वार्थ
प्रथम चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों को प्राप्त होती श्लोक-वार्तिक में कहा भी है
हैं, किन्तु करणलब्धि भव्य जीव को ही प्राप्त होती है और उसके ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वादभ्यो दर्शनस्य हि।
होने पर नियम से सम्यग्दर्शन का लाभ हो जाता है। सम्यक्त्व प्राप्त तद्भावे तदुद्भूतेरभावाद् दूरभव्यवत्।।1.34॥ करने वाले के विषय में नेमिचन्द्राचार्य कहते हैंअर्थात्- ज्ञान के सम्यक्पने में हेतु होने से सम्यक्त्व पूज्य
चदुगदि भव्वो सण्णी पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो। है। सम्यक्त्वोत्पत्ति के न होने पर सम्यग्ज्ञानोत्पत्ति नहीं होती है।
जागारोसलेसोसलद्धिगो सम्ममुवगमई 1651॥गो.जीव जैसे दूरातिदूरभव्य को भव्य होने पर भी सम्यक्त्व की प्राप्ति न होने चारों गति वाला भव्य जीव संज्ञी, पर्याप्तक विशुद्ध भाव से सम्यग्ज्ञान नहीं होता है। ..
वाला, साकारोपयोगी, जागृत, शुभलेश्यायुक्त और करणलब्धि को आचार्य सोमदेव ने भी कहा है- "सम्यक्त्व एक महान प्राप्त सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। पुरुष देवता है। यदि वह एक बार भी प्राप्त होता है तो संसार को सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करने वाला प्राणी शांत कर देता है। कुछ समय बाद ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति होती सम्यक्त्व के अन्तरंग और बहिरंग कारणों को जानना भी आवश्यक ही है। परलोकसम्बन्धी सुखों के साथ मोक्ष का प्रथम कारण है। समझता है, अत: उन पर भी संक्षिप्त चर्चा करना सामयिक होगा। स्वामिकार्तिकेय का कहना है कि व्रतरहित होने पर भी स्वर्गसुख "निकट भव्यता को प्राप्त होना, कर्मों की स्थिति का अत्यन्त को देने वाला है। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं चारित्र और ज्ञान से | घट जाना, मिथ्यात्व आदिक कर्मों का उपशमादिक हो जाना हेय रहित अकेला सम्यग्दर्शन भी प्रशंसनीय है। आचार्य वसुनन्दी ने और उपादेय को ग्रहण करने वाले मन का प्राप्त होना, और परिणामों कहा है कि जो जीव सम्यक्त्वरहित है, उसके अणुव्रत, गुणव्रत, की शुद्धता का होना आदि सम्यग्दर्शन के अन्तरंग कारण हैं। शिक्षाव्रत, ग्यारह प्रतिमाएँ नहीं होती हैं। सम्यक्त्व के बिना श्रावक | जातिस्मरण, देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप का उपदेश प्राप्त होना, का कोई भी व्रत न हो पाने के कारण सम्यक्त्व की श्रावक के लिए | देवों की ऋद्धि का देखना, देवदर्शन करना, वेदना का तीव्र अनुभव अनिवार्यता है। अतः सम्यक्त्व की लब्धि, कारण, स्वरूप और | होना, पञ्चकल्याणक आदि महोत्सवों की विभूतियों को देखना भेदों पर भी विचार आवश्यक है।
| सम्यग्दर्शन के बाह्य कारण हैं। कषायों की मन्दता और परिणामों की भद्रता वाले किसी | अन्तरंग और बहिरंग कारणों के होने पर प्राप्त होने वाले भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय जीव को सम्यक्त्व की भूमिका | सम्यग्दर्शन के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए आचार्यश्री कुन्दकुन्द बनती है। जब किसी भव्य जीव का अर्धपुद्गल परिवर्तन काल स्वामी कहते हैं-"हिंसा रहित धर्म में, अठारह दोष रहित देव में शेष रहता है, तब उसके सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता बनती है और और निर्ग्रन्थ गुरु के प्रवचन में श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। आप्त पाँच लब्धियों के प्राप्त होने पर सम्यक्त्व प्राप्त होता है। लब्धियों | आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। आचार्य श्री का स्वरूप शास्त्रों में इस प्रकार वर्णित है
समन्तभद्रस्वामी श्रावकों द्वारा पालनयोग्य सम्यग्दर्शन का स्पष्ट 1. क्षयोपशमलब्धि - ज्ञानावरण आदि कर्मों की शक्ति | व्याख्यान करते हैंप्रति समय अनन्तगुणी हीन होती हुई उदय में आना क्षयोपशम
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्। लब्धि है।
त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥4॥ रत्न. श्रा... 2. विशुद्धिलब्धि - प्रथम लब्धि के कारण वेदनीय, शुभ परमार्थस्वरूप देव-शास्त्र-गुरु का तीन मूढ़ता रहित आठ नाम, उच्चगोत्र, इत्यादि रूप पुण्य प्रकृतियों के बन्धन योग्य जो | मद रहित, आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अभिप्राय जीव के परिणाम हैं, उन परिणामों का होना विशुद्धिलब्धि है। | यह है कि जब आत्मा में दर्शनमोह का उदय नहीं रहता, तब सच्चे
3. देशनालब्धि - छह द्रव्य, सात तत्त्व आदि के उपदेशक | देव-शास्त्र-गुरु में अटूट श्रद्धा भक्ति जागृत होती है। जिनोपदिष्ट गुरु का मिलना, उपदिष्ट तत्त्वों का चिन्तन, धारण मनन होना | जीवादि सात तत्त्वों में प्रगाढ़ रुचि पैदा होती है। अपने आपकी
-अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 15
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