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________________ उपवास स्व. पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार उपवास एक प्रकार का तप और व्रत होने से धर्म का अंग । ही उपवास या व्रत समझते हैं और इसी से धर्म लाभ होना मानते है। विधिपूर्वक उपवास करने से पाँचों इन्द्रियाँ और बन्दर के | हैं। सोचने की बात है कि यदि भूखे मरने का ही नाम उपवास या समान चंचल मन ये सब वश में हो जाते हैं, साथ ही पूर्व कर्मों की | व्रत हो तो भारतवर्ष में हजारों मनुष्य ऐसे हैं जिनको कई-कई निर्जरा होती है। संसार में जो कुछ दु:ख और कष्ट उठाने पड़ते हैं | दिन तक भोजन नहीं मिलता है, वे सब व्रती और धर्मात्मा ठहरें; वे प्राय: इन्द्रियों की गुलामी और मन को वश में न करने के कारण | परन्तु ऐसा नहीं है। हमारे आचार्यों ने उपवास का लक्षण इस से ही उठाने पड़ते हैं। जिस मनुष्य ने अपनी इन्द्रियों और मन को प्रकार वर्णन किया हैजीत लिया उसने जगत जीत लिया, वह धर्मात्मा है और सच्चा कषाय-विषयाहार-त्यागो यत्र विधीयते। सुख उसी को मिलता है। इसलिये सुखार्थी मनुष्यों का उपवास उपवासः स विज्ञेयः शेष लंघनकं विदुः।। करना प्रमुख कर्त्तव्य है। इतिहासों और पुराणों के देखने से मालूम अर्थात्- जिसमें कषाय, विषय और आहार इन तीनों का होता है कि पूर्व काल में इस भारतभूमि पर उपवास का बड़ा प्रचार त्याग किया जाता है उसको उपवास समझना चाहिये, शेष जिसमें था। कितने ही मनुष्य कई-कई दिन का ही नहीं, कई-कई सप्ताह, कषाय और विषय का त्याग न होकर केवल आहार का त्याग पक्ष तथा मास तक का भी उपवास किया करते थे। वे इस बात को | किया जावे उसको लंघन (भूखा मरना) कहते हैं। भली प्रकार समझे हुए थे और उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि श्री अमितगति आचार्य इस विषय में ऐसा लिखते हैं"कर्मेन्धनं यदज्ञानात् संचितं जन्म-कानने। त्यक्त-भोगोपभोगस्य, सर्वारम्भ-विमोचिनः । उपवास-शिखी सर्वं तद्भस्मीकुरुते क्षणात्॥" चतुर्विधाऽशनत्याग उपवासो मतो जिनैः॥ "उपवास-फलेन भजन्ति नरा भुवनत्रय-जात-महाविभवान्। अर्थात् जिसने इन्द्रियों के विषयभोग और उपभोग को खलु कर्म-मल-प्रलयादचिरादजराऽमर-केवल-सिद्ध-सुखम्॥" | त्याग दिया है और जो समस्त प्रकार के आरंभ से रहित है उसी के 'संसाररूपी वन में अज्ञान भाव से जो कुछ कर्म रूपी- | जिनेन्द्र देव ने चार प्रकार के उपवास के आहार-त्याग को उपवास ईधन-संचित होता है उसको उपवासरूपी अग्नि क्षणमात्र में भस्म | कहा है। अत: इन्द्रियों के विषयभोग और आरंभ के त्याग किये कर देती है।' बिना चार प्रकार के आहार का त्यागना उपवास नहीं कहलाता। 'उपवास के फल से मनुष्य तीन लोक के महाविभव को स्वामी समन्तभद्राचार्य की उपवास के विषय में ऐसी आज्ञा प्राप्त होते हैं और कर्म-मल का नाश हो जाने से शीघ्र ही अजर- | हैअमर केवल सिद्ध सुख का अनुभव करते हैं।' पंचानां पापानामलंक्रियाऽऽरम्भ-गंध-पुष्पाणाम्। इसी से वे (पूर्वकालीन मनुष्य) प्राय: धीर वीर, सहनशील, स्नानाऽञ्जन-नस्यानामुपवासे परिहतिं कुर्यात्॥१॥ मनस्वी, तेजस्वी उद्योगी, साहसी, नीरोगी, दृढ़ संकल्पी, बलवान्, धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्। विद्यावान् और सुखी होते थे, जिस कार्य को करना विचारते थे ज्ञानध्यान-परो वा भवतूपवसन्न तन्द्रालुः ।।२।। उसको करके छोड़ते थे। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है। आजकल 'उपवास के दिन पाँचों पापों हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और उपवास की बिलकुल मिट्टी पलीद है- प्रथम तो उपवास करते ही परिग्रह का, शृंगारादिक के रूप में शरीर की सजावट का, आरम्भों बहुत कम लोग हैं और जो करते हैं उन्होंने प्रायः भूखे मरने का का, चन्दन इत्र फुलेल आदि गंध द्रव्यों के लेपन का, पुष्पों के नाम उपवास समझ रक्खा है। इसी से वे कुछ भी धर्म-कर्म न कर सूंघने तथा माला आदि धारण करने, स्नान, आँखों में अंजन उपवास का दिन यों ही आकुलता और कष्ट से व्यतीत करते हैं (सुरमा) लगाने का और नाक में दवाई डालकर नस्य लेने तथा गर्मी के मारे कई-कई बार नहाते हैं, मुख धोते हैं, मुख पर पानी तमाखू आदि सूंघने का, त्याग करना चाहिये।' के छींटे देते हैं, ठंडे पानी में कपड़ा भिगो कर छाती आदि पर _ 'उपवास करने वाले को उस दिन निद्रा तथा आलस्य को रखते हैं; कोई कोई प्यास कम करने के लिए कुल्ला तक भी कर छोड़ कर अति अनुराग के साथ कानों द्वारा धर्मामृत को स्वयं पीना लेते हैं और किसी प्रकार से यह दिन पूरा हो जावे तथा विशेष तथा दूसरों को पिलाना चाहिये और साथ ही ज्ञान तथा ध्यान के भूख-प्यास की बाधा मालूम न होवे इस अभिप्राय से खूब सोते हैं, आराधन में तत्पर रहना चाहिए।' चौसर-गंजिफा आदि खेल खेलते हैं अथवा कभी-कभी का पड़ा इस प्रकार उपवास के लक्षण और स्वरूप-कथन से यह गिरा ऐसा गृहस्थी का धंधा या आरंभ का काम ले बैठते हैं जिसमें साफ़तौर पर प्रकट है कि केवल भूखे मरने का नाम उपवास नहीं लगकर दिन जाता हुआ मालूम न पड़े। गरज ज्यों-त्यों करके है; किन्तु विषय-कषाय त्याग करके इन्द्रियों को वश में करने, अनादर के साथ उपवास के दिन को पूरा कर देते हैं, न विषय पंच पापों तथा आरंभ को छोड़ने और शरीरादिक से ममत्व परिणाम कषाय को छोड़ते हैं और न कोई खास धर्माचरण ही करते हैं। पर | को हटाकर प्रायः एकान्त स्थान में धर्म ध्यान के साथ काल को इतना जरूर है कि भोजन बिलकुल नहीं करते, भोजन न करने को 12 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित अमर केवल (पूर्वकालीनमा, नीरोगी, दूदा करना वि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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