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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा - त्रस नाड़ी की लम्बाई कितनी है? क्या त्रस | अर्थ - वृक्ष में (स्थित) सार की तरह, लोक के बहुमध्य नाड़ी और लोक नाड़ी एक ही बात है? भाग में एक राजू लम्बी चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची समाधान - लोकनाड़ी और त्रस नाड़ी को लगभग सभी त्रस-नाली है। त्रसनाली की कमी का प्रमाण तीन करोड़, इक्कीस लेखकों ने पर्यायवाची माना है। यद्यपि लोकनाड़ी शब्द 'सिद्धान्तसार लाख, बासठ हजार दो सौ इकतालीस धनुष एवं एक धनुष के दीपक' आदि ग्रन्थों में पढ़ने को तो मिलता है पर लोकनाड़ी और तीन भागों में से दो (2/3) भाग है। त्रसनाड़ी के स्वरूप में भेद नहीं करके दोनों का एक ही स्वरूप भावार्थ - त्रस नाड़ी की ऊँचाई 14 राजू है। इसमें सातवें लिखा है। परन्तु जब गौर से देखें तो लोक के मध्य भाग में एक | नरक के नीचे एक राजू प्रमाण कलकल नामक स्थावर लोक है। राजू चौड़ी और एक राजू मोटी तथा चौदह राजू लम्बी लोकनाड़ी | इसमें त्रस जीव नहीं रहते। शेष तेरह राजू में से भी ऊपर और नीचे तथा एक राजू मोटी, चौड़ी एवं तेरह राजू के कुछ कम लम्बी त्रस | का कुछ स्थान घटाने से कुछ कम तेरह राजू प्रमाण त्रस नाड़ी नाड़ी उचित प्रतीत होती है। सिद्ध होती है जो इस प्रकार हैलोक का जितना भाग त्रस जीवों का निवास क्षेत्र है उसे | 1. महातम प्रभा नामक सप्तम भूमि जो आठ हजार योजन त्रस नाड़ी या त्रस नाली कहते हैं । यद्यपि पूरी चौदह राजू लम्बी मोटी है, के मध्य भाग में ही नारकियों का निवास है अर्थात् नीचे लोक नाड़ी के, निचले एक राजू से कुछ अधिक भाग में त्रस | के 3999-1/3 योजन में (3199466-2/3 धनुष) त्रस जीव नहीं जीवों का निवास नहीं है, फिर भी आचार्यों ने त्रस नाड़ी को चौदह | हैं। अतः यह संख्या 13 राजू में से घटानी चाहिए। राजू लम्बा भी माना है। जैसा कि 'सिद्धांतसार दीपक' के प्रथम 2. उर्ध्वलोक में सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से अधिकार श्लोक नं. 72 में कहा है - ईष्त्प्राग्भार नामक आठवीं पृथ्वी 12 योजन दूर है ईष्प्राग्भार लोकस्य मध्यभागेऽस्ति त्रसनाड़ी त्रसान्विता। पृथ्वी की मोटाई 8 योजन है इसके ऊपर दो कोश मोटा घतोदधि चतुर्दशमहारज्जूत्सेधा रज्जवेक विस्तृता ॥ 92।। वलय,एक कोश मोटा घनवातवलय तथा 1575 धनुष मोटा अर्थ - लोक के मध्य भाग में त्रस जीवों से समन्वित, | तनुवातवलय है। उर्ध्वलोक के इन 96000 + 64000 + 4000 + चौदह राजू ऊँची और एक राजू चौड़ी त्रसनाड़ी (नाली) है। 2000 + 1575 धनुष = 167575 धनुष हुए। श्री त्रिलोकसार गाथा 143 में इस प्रकार कहा है इस प्रकार अधोलोक और उर्ध्वलोक दोनों त्रसजीव रहित लोयबहुमज्झदेसे रुक्खे सारत्व रज्जुपदटजुदा । । स्थान का जोड़ (32162241-2/3 धनुष) कम बैठता है। चोद्दसरज्जुत्तुंगा तसणाली होदि गुणणामा ॥43॥ उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार लोकनाड़ी का विस्तार 14 अर्थ- लोकाकाश के मध्य प्रदेशों में (बीच में) वृक्ष के राजू और त्रस नाड़ी का विस्तार 13 राजू में से 32162241-2/3 मध्य में रहने वाले सार भाग के सदृश, तथा एक राजू प्रतर सहित | धनुष कम मानना चाहिए। चौदह राजू ऊँची और सार्थक नाम वाली त्रस नाली है। जिज्ञासा- क्या संसारी अवस्था में जीव को मूर्तिक कहा तिल्लोयण्णत्तिकार आ.यतिवृषभ ने तो एक विवक्षा से | जा सकता है? अधिकार 2 गाथा 8 के द्वारा सम्पूर्ण लोक को भी नाड़ी कहा है: समाधान - "जीव अमूर्तिक ही है" ऐसा एकान्त नहीं उववाद-मारणंतिय-परिणद-तस-लोय-पूरणेण गदो। है। जैसा सर्वार्थ सिद्धि अध्याय-2, सूत्र-7 की टीका में कहा है केवलिणो अवलंबिय सव्व-जगो होदितस-णाली॥8॥ हिन्दी अर्थ -आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त अर्थ - अथवा उपपाद और मारणांतिक समुद्घात में | है। यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्तिक ही है। कर्मबन्ध परिणत त्रस तथा लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली का आश्रय | रूप पर्याय की अपेक्षा उसका आवेश होने के कारण कथंचित् मूर्त करके सारा लोक त्रस-नाली है। ॥8॥ त्रस नाड़ी का स्वरूप | है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। तिल्लोयपण्णत्तिकार ने अधिकार-2, गाथा-6 में इस प्रकार कहा बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं। तम्हा अमुत्ति भावो णेयंतो होई जीवस्स। लोय-बहु मज्झ देसे तरुम्मि सारं व रज्जु-पदर-जुदा। अर्थ - यद्यपि आत्मा बन्ध की अपेक्षा एक है, तथापि तेरस रज्जुच्छेहा किचूंणा होदि तस-णाली ॥6॥ | लक्षण की अपेक्षा वह भिन्न है। अत: जीव का अमूर्तिक भाव ऊण-पमाणं दंडा कोडि-तियं एक्कवीस-लक्खाणं। अनेकान्त रूप है। वह एक अपेक्षा से तो है और एक अपेक्षा से वास४ि च सहस्सा दुसया इगिदाल दुतिभाया ॥7॥ | नहीं है। 20 सितम्बर 2002 जिनभाषित है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524266
Book TitleJinabhashita 2002 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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