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________________ लिया है, जिसका मन परोपकार में लगा हुआ है, जिसे सताना नहीं । राजकुमार मुनि पर पांशुल श्रेष्ठी का उपसर्ग, चाणक्य आदि आता, जिसे स्वभाव में रमने की कला आ गयी है, ऐसा साधक | पाँच सौ मुनियों पर मंत्री द्वारा किया गया उपसर्ग, सुकुमालमुनि क्षमाशील होता है और परम अहिंसा धर्म का पालन करता है। । को स्यालिनी द्वारा खाया जाना, सुकौशल मुनि का व्याघ्र द्वारा घृणा का कोई संसार नहीं होता, बल्कि संसार से घृणा खाया जाना, पणिक मुनि का जल का उपसर्ग सहकर मोक्ष जाना, मिटे; यह महापुरुष की भावना होती है। क्रोध एक नशे की तरह श्रेणिक द्वारा यशोधर मुनि के गले में मृत सर्प डालना और मुनि को है जो विवेक को मारता है,संयम के बाँध को तोड़ता है, कुकर्म से चींटियों द्वारा काटे जाने पर भी उफ तक न करना क्षमा शीलता के जोडता है, शरीर को तप्त करता है, प्रकृति से दूर ले जाता है, नरक | ऐसे विलक्षण उदाहरण हैं जिन्हें जानने-सुनने पर अपने क्रोधियों गति में ले जाता है, अतः क्रोध त्याज्य ही है। पर ही क्रोध आने लगता है। स्वयं के अपकृत्यों पर घृणा होने शान्त व्यक्ति ही साधना का अधिकारी होता है। कर्मरूपी | लगती है और स्वयं से प्यार होने लगता है। ऐसी क्षमा हमारे हृदय मैल का क्षय किये बिना आत्मिक गुणों की आराधाना संभव नहीं | में आ जाये; यह प्रयत्न हम सब करें। है। जिनाज्ञा है कि कुछ लोग क्षमा को आदान-प्रदान का भाव मानते हैं जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा। जबकि इसका विनिमय संभव नहीं है। इसे तो धारण किया जा जो न उवसमइ तस्स णस्थि आराहणा॥ सकता है, किया जाता है। कुछ लोग क्षमा माँगने के लिए दबाव अर्थात् जो उपशान्त होता है उसकी आराधना सफल होती | डालते हैं, शक्ति का भय दिखाते हैं, लोक-लाज के नाम पर है, जो उपशान्त नहीं होता है उसकी आराधना ठीक नहीं है। याचना भी करते हैं। यह सब निरर्थक परिश्रम है क्योंकि जब तक उपशान्त का तात्पर्य उप = समीप, शान्त = शान्ति। अतः जो क्षमा का विचार स्वयं ही उत्तरदायी व्यक्ति के मन में जन्म नहीं शान्ति के समीप है वह उपशान्त है । शान्ति का आधार आत्मा है लेता तब तक क्षमा याचना या क्षमा करने का भाव ही उत्पन्न नहीं शरीर नहीं अत: आत्मा की निकटता आवश्यक है। जो आत्मा के होता। नीति कहती है किनिकट है, क्षमा उसका निजभाव है, अतः क्षमा के बिना शान्ति की "क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात।" "क्षमा कल्पना या शान्ति की कामना ही निरर्थक है। यह क्षमा कर्मक्षय | वीरस्य भूषणम्" भी इसलिए कहा है। छोटे आदमी की क्षमा से आती है। क्षमा कम याचना अधिक है। भय या प्रीति क्षमा के कारक नहीं भर्तृहरि कहते हैं कि "भज क्षमा" अर्थात् क्षमा की भक्ति | हैं। शक्तिमान की क्षमा या उच्च पदासीन व्यक्ति की क्षमा सामाजिक करो। बिना क्षमा की भक्ति के आत्मविरोधी क्रोध- रिपु पर विजय | मूल्यों एवं सौहार्द की सृष्टि करती है, अतः क्षमा याचना के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती अत: हमारे जीवन में क्षमा आये तथा हम भी की जाय वह श्लाघनीय (प्रशंसनीय) एवं आदरणीय ही है। पृथ्वी सदृश क्षमा को धारण कर सकें तभी हम वीर हैं, तभी हम क्षमा के लिए समय एवं अवसर की प्रतीक्षा जरूरी नहीं है । मानव महावीर हैं। समाज दण्डनीय कृत्य के लिए दण्ड की वकालत करता है, उसे धर्मात्मा होने का सबसे बड़ा प्रमाण क्षमाशील होना है। | उचित मानता है, प्रताड़ित करता है वह पापास्रव कर रहा है अत: श्रीराम ने रावण से कहा कि "तुम मेरी सीता मुझे वापिस कर दो।। वह दया का पात्र तो है ही। क्षमा माँग लेना भूल का अन्त करना मेरा तुमसे कोई बैर नहीं है।" श्री दत्त मुनि व्यन्तरदेव कृत उपसर्ग है, भविष्य के लिए प्रायश्चित है। क्षमायाचना के साथ ही अन्त: को जीतकर केवल ज्ञानी हुए। चिलाती पुत्र मुनि व्यन्तरदेव कृत | करण की शुद्धि हो जाती है। इतने पर भी यदि कोई क्षमायाचना उपसर्ग जीतकर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए। कार्तिकेय मुनि क्रोंच | को ठुकराता है तो उसे पापात्मा समझकर क्षमा कर देना चाहिए। राजा के प्रकोप को सहकर देव हुए। गुरुदत्त मुनि ने कपिल क्षमायाचना स्व के प्रयोजन की सिद्धि (स्वार्थपूर्ति) के लिए है; ब्राह्मण के उपसर्ग को क्षमा से जीता और मोक्ष प्राप्त किया। श्री लेकिन यह स्वार्थ आध्यात्मिक अर्थों वाला है। इससे जीवन में धन्यमुनि चक्रराजकृत उपसर्ग से विचलित नहीं हुए और केवलज्ञान नकारात्मकता के स्थान पर सकारात्मकता, निष्क्रियता के स्थान प्राप्त किया। पाँचों पाण्डवों ने अग्नि में तप्त आभूषण पहनाये जाने पर सक्रियता और क्षोभ के स्थान पर क्षेम की सृष्टि होती है। क्षमा पर भी उफ तक नहीं की। पाँच सौ मुनि दण्डक राजा के उपसर्ग देने वाले से भी अधिक निर्मल भावों के लिए अन्तर्द्वन्द्व क्षमायाचक से व्यथित नहीं हुए और सिद्ध हुए। भगवान पार्श्वनाथ पर कमठ के मन में चलता है। पश्चाताप की भावना, उदारता, करुणाशीलता, ने घोर उपसर्ग किया और पत्थरों की वर्षा की, पानी बरसाया अहिंसा आदि निज परिस्थितियाँ, सामाजिक-नैतिक-धार्मिक दबाव भगवान ने अन्त तक क्षमा को धारण किया। कमठ का क्रोध पार्श्व आदि बाह्य परिस्थितियाँ क्षमा याचना की भावना को आसान बना की क्षमा के आगे नतमस्तक हो गया। कहा भी है देते हैं। इसके लिए अहं और शर्म की भावना से छुटकारा पाना समता सुधा का पान करके जो सदा निःशंक हैं, आवश्यक है। क्षमायाचना, क्षमादान और क्षमाशीलता तीनों सुखद शोकार्त्त न करता उन्हें प्रतिकूल कोई प्रसंग है। भविष्य का निर्माण करते हैं अतः हर दृष्टि से, हर स्थिति में कमठ ने उपसर्ग ढाया था सताने के लिए, उपादेय एवं अनुकरणीय है। पार्श्व को कारण बना वह मुक्ति पाने के लिए। पता- एल-65, न्यू इंदिरा नगर, पार्ट ए, बुरहानपुर (म.प्र.) 14 सितम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524266
Book TitleJinabhashita 2002 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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