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________________ । । कहता है तू कितनी बार तुझे बताया कि शान्तिप्रसाद, शान्तिप्रसाद वह व्यक्ति मन ही मन मुस्कराया और बोला, मालूम पड़ गया है कि नाम आपका शान्तिप्रसाद है पर आप तो ज्वालाप्रसाद हैं । अपने मान को अभी जीत नहीं पाया, क्योंकि मान को जरा सी ठेस लगी और क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। बंधुओं ! ध्यान रखो जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है । पुरुषार्थ यही है कि ऐसी परिस्थिति आने पर हम यह सोचकर चुप रह जायें कि यह अज्ञानी है। मुझसे हँसी कर रहा है से या फिर सम्भव है कि मेरी सहनशीलता की परीक्षा कर रहा है। उसके साथ तो हमारा व्यवहार, माध्यस्थ भाव धारण करने का होना चाहिये। कोई वचन व्यवहार अनिवार्य नहीं है। जो विनयवान हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उससे ही वचन व्यवहार करना चाहिये। ऐसा आचार्यों ने कहा है । अन्यथा 'मौनं सर्वत्र साधनम्' मौन सर्वत्र / सदैव अच्छा साधन है। द्वीपायन मुनि के साथ यही हुआ कि वे मौन नहीं रह पाये, और यादव लोग भी शराब के नशे में आकर मौन धारण नहीं कर सके।' मदिरापानादिभिः मनसः पराभवो दृश्यते' मंदिरापान से मन का पराभव होते देखा जाता है। पराभव से तात्पर्य है पतन की ओर चले जाना। अपने सही स्वभाव को भूलकर गलत रास्ते पर मुड़ जाना । गाली के शब्द तो किसी के कानों में पड़ सकते हैं लेकिन ठेस सभी को नहीं पहुँचती ठेस तो उसी के मन को पहुँचती है जिसे लक्ष्य करके गाली दी जा रही है। या जो ऐसा समझ लेता है कि गाली मुझे दी जा रही है। मेरा अपमान किया जा रहा है। I पान मुनि को भीतर तो यही श्रद्धान था कि मैं मुनि हूँ। मेरा वैभव समयसार है। समता परिणाम ही मेरी निधि है। मार्दव मेरा धर्म है। मैं मानी नहीं हूँ, लोभी नहीं हूँ। मेरा यह स्वभाव नहीं है । रत्नत्रय धर्म उनके पास था, उसी के फलस्वरूप तो उन्हें ऋद्धि प्राप्त हुई थी। लेकिन मन में पर्याय बुद्धि जागृत हो गयी कि गाली मुझे दी जा रही है। आचार्य कहते हैं कि 'पज्जयमूढ़ा हि परसमया' जो पर्याय में मुग्ध है, मूढ़ है वह पर समय है। पर्याय का ज्ञान होना बाधक नहीं है परन्तु पर्याय में मूढ़ता आ जाना बाधक है। पर्याय बुद्धि ही मान को पैदा करने वाली है। पर्याय बुद्धि के कारण उनके मन में आ गया कि ये मेरे ऊपर पत्थर बरसा रहें हैं, - 10 सितम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International मुझे गाली दी जा रही है और उपयोग की धारा बदल गयी। उपयोग में उपयोग को स्थिर करना था, पर स्थिर नहीं रख पाये । उपयोग आत्म-स्वभाव के चिन्तन से हटकर बाहर पर्याय में लग गया और मान जागृत हो गया। जो अपने आप में स्थित है, स्वस्थ है उसे मान-अपमान सब बराबर हैं । उसे कोई गाली भी दे तो वह सोचता है कि अच्छा हुआ अपनी परख करने का अवसर मिल गया। मालूम पड़ जायेगा कि कितना मान कषाय अभी भीतर शेष है। यदि ठेस नहीं पहुँचती तो समझना कि उपयोग, उपयोग में है। ज्ञानी की यही पहचान है कि वह अपने स्वभाव में अविचल रहता है। यह विचार करता है कि दूसरे के निमित्त से मैं अपने परिणाम क्यों बिगाडूं? अगर अपने परिणाम बिगाडूंगा तो मेरा ही अहित होगा। कषाय दुःख की कारण है। पाप-भाव दुःख ही है। आचार्य उमास्वामी ने कहा है 'दुःखमेव वा' आनन्द तो तब है कि जब दुःख भी मेवा हो जाये । सुख और दुःख दोनों में साम्य भाव आ जाये । मान कषाय का विमोचन करके ही हम अपने सही स्वास्थ्य का अनुभव कर सकते हैं, साम्य भाव ला सकते हैं । जैसे दूध उबल रहा है अब उसको अधिक नहीं तपाना है तब या तो उसे सिगड़ी से नीचे उतार कर रख दिया जाता है या फिर अग्नि को कम कर देते हैं। तब अपने आप वह धीरे-धीरे अपने स्वभाव में आ जाता है, स्वस्थ हो जाता है अर्थात् शान्त हो जाता है और पीने योग्य हो जाता है। ऐसे ही मान कषाय के उबाल से अपने को बचाकर हम अपने स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकते हैं। मान का उबाल शान्त होने पर ही मार्दव धर्म प्राप्त होता है। मान को अपने से अलग कर दें या कि अपने को ही मान कषाय से अलग कर लें, तभी मार्दव धर्म प्रकट होगा। अन्त में इतना ही ध्यान रखिये कि अपने को शान्तिप्रसाद जैसा नहीं करना है। हाँ, यदि कोई गाली दे, कोई प्रतिकूल वातावरण उपस्थित करे तो अपने को शान्तिनाथ भगवान को नहीं भूलना है। अपने परिणामों को संभालना अपने आत्म परिणामों की सँभाल करना ही धर्म है। यही करने योग्य कार्य है जिन्होंने इस योग्य कार्य को सम्पन्न कर लिया वे ही कृतकृत्य कहलाते हैं । वही सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं, जिनकी मुदृता को अब कोई खण्डित नहीं कर सकता। हम भी मुदृता के पिण्ड बनें और जीवन को सार्थक करें। सुभाषित जीवन निश्चित ही संघर्षमय है, लेकिन साधक उसे हर्षमय होकर अपनाता है । साहस, धैर्य, सहिष्णुता नहीं होने के कारण ही चित्त विक्षिप्त सा होता है और चित्त का चंचल होना साधक की सबसे बड़ी कमजोरी है । आचार्य श्री विद्यासागर 'सागर बूँद समाय' से 'समग्र' से साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524266
Book TitleJinabhashita 2002 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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