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________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य आपकी शोध-पत्रिका "जिनभाषित" का मैं नियमित पाठक । है। उनके चरणों में भी नमोऽस्तु। हूँ। उसमें प्रकाशित सामग्री तर्क संगत, विवादविहीन, अन्य लेखकों में-डॉ. शीतलचन्द्र जैन, पं. रतनलाल बैनाड़ा, युगानुकूल,सरस एवं सर्वगम्य रहती है। अतार्किक अथवा आर्ष- डॉ. निहालचंद जैन, डॉ. राजुल जैन, डॉ. (ब्र.) रेखा जैन, श्री विमुख सामग्री का विरोध वह उसी निर्भीकता के साथ करती है, / अशोक शर्मा, श्री श्रीपाल दिवा, कवि (प्रो.) सरोजकुमार के जिस प्रकार कि आर्ष-सम्मत सामग्री का पुरजोर समर्थन। । | 'शब्दसमूह ' मेरी सराहना पाते है; उन सभी का साधुवाद । मैं सन् 1945-46 से ही उच्चस्तरीय पत्र-पत्रिकाओं का प.पू. आचार्य विद्यासागर जी की कविता बहुत प्रभावशील नियमित पाठक रहा हूँ तथा सन् 1950 के दशक में कुछ उच्चस्तरीय | है; इसे मूकमाटी में पढ़ने का पृथक् आनंद है, जिनभाषित में पढ़ने पत्रिकाओं का सम्पादक भी रहा। इस दिशा में पत्रकारिता के क्षेत्र | का पृथक् । उनके श्रीचरणों में नमोऽस्तु। में कुछ खट्टे-मीठे अनुभव भी किये। उसकी विषम कठिनाइयों अंत में चर्चा कर रहा हूँ 'सम्पादकीय' की। आपने का भी अनुभव किया और यह यथार्थ है कि किसी पत्रिका को | सम्पादकीय के स्थान पर एक स्वतंत्र लेख दे दिया है, जो पू. नियमित रूप से चलाते रहना सचमुच ही बड़ा कठिन कार्य है। | आचार्य ज्ञानसागर जी के 30 वें समाधिदिवस की प्रासंगिकता में फिर भी, आपकी पत्रिका 'जिनभाषित' नियमित ही नहीं, | सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निबन्ध बनकर प्रकट हुआ है । बधाई। बल्कि उत्तरोत्तर प्रगतिशील भी है, इसका समस्त श्रेय निश्चय ही | पत्रिका में; आपके सम्पादन में; त्रुटियाँ, बुराइयाँ, खामियाँ आपके कुशल सम्पादन एवं धैर्यसाध्य प्रबन्धन के लिये है। इन | खोजता रहा, पर उनके दर्शन नहीं हो सके। आप मँजे हुए 'खिलाड़ी' सब कारणों से जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका और आपकी | जो हैं । पर आगामी किसी अङ्क में कुछ पाया तो अवश्य लिखूगा। पत्रिका का स्थान निस्सन्देह ही अन्यतम है। - सुरेश सरल जिनभाषित की प्रामाणिक शोध सामग्री, शुद्ध, नयनाभिराम सरल कुटी, 293, गढ़ा फाटक, जबलपुर मुद्रण एवं टाईप-सैटिंग आदि को देखकर प्राच्यकालीन जैनहितैषी' 'जिनभाषित' मई अङ्कका सम्पादकीय 'दोनों पूजा पद्धतियाँ और उसके सम्पादकप्रवर पं.नाथूराम जी प्रेमी (बम्बई) तथा 1960 आगमसम्मत' पढ़ा। आपने वैद्धिक ईमानदारीपूर्वक आगम के के दशक के अनेकान्त' एवं उसके कुशल सम्पादक पण्डितप्रवर आलोक में वस्तु स्थिति का निरूपण किया है। श्री पं. सदासुखदासजी जुगलकिशोर जी मुख्तार साहब के निर्भीक सम्पादकीय वक्तव्य, ने श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार की हिंदी टीका श्लोक 119 में बहुत सम्पादन-कौशल एवं प्रकाशित सामग्री की प्रामाणिकता का सहसा विस्तार से पूजा परम्परा का वर्णन गति, पर्याय और स्थिति के ही स्मरण आ जाता है। संदर्भ में किया है जो मूलतः पठनीय है। आपकी स्वयं और आपकी पत्रिका की भविष्य में भी यही जैन धर्म अहिंसा-अपरिग्रहयुक्त वीतरागता का पोषक है। प्रगतिशील निर्भीक स्थिति बनी रहे, इसी मंगल कामना के साथ। इसमें अंतरंग अभिप्राय का अधिक महत्त्व है। इसी कारण पं. प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन सदासुखदास जी ने ठीक ही कहा है कि "अपने भावनि के अधीन महाजन टोली नं.2 पुण्य बन्ध के कारण हैं"। इसके आगे पं. जी सा. ने जैन दर्शन की आरा (बिहार)-802301 अहिंसा की साधना हेतु सचित्त पूजन का सतर्क निषेध किया है। जिनभाषित (जून अङ्क) मिला। मुखपृष्ठ पर प.पू. सरलसंत | उनके अनुसार "इसलिये जो ज्ञानी हैं, धर्मबुद्धि वाले हैं वे तो सभी आचार्य ज्ञानसागर जी का चित्र पाकर आत्मिक खुशी हुई है। | धर्म के कार्य यत्नाचार से करते हैं, करना चाहिये। जिस प्रकार दो दिनों में पूरे पृष्ठ बाँच लिये। रोचक एवं ज्ञानवर्धक | जीवों की विराधना न होवे उस प्रकार करना चाहिये। फूलों के सामग्री के लिए धन्यवाद । पृ. १ पर प. पू. मुनिक्षमासागर जी का | धोने में दौड़ते हुए त्रस जीवों की बहुत हिंसा होती है। इसमें हिंसा लेख' आचार्य ज्ञानसागर जी की साहित्य साधना' शीर्षक के अनकल | तो बहुत है तथा परिणामों की विशुद्धता थोड़ी है। इसलिये पक्षपात साधना से अवगत कराता है। पृ. 15 पर पुन: मुनिवर का शब्द- | छोड़ कर जिनेन्द्र के कहे अहिंसा धर्म को ग्रहण करके जितना चित्र अतीत के बन्द गवाक्ष खोलता प्रतीत होता है, हृदय-प्रधान है | कार्य करो, उतना यत्नाचारपूर्वक जीवों की विराधना टालकर करो।" उनकी शैली। पृ. 17 पर भी उनकी कलम का प्रकाश सुन्दर बोध | दक्षिण भारत में शैव धर्माविलम्बियों द्वारा जैन समाज एवं कराता है। उनकी कृति 'आत्मान्वेषी' मैं अनेक बार पढ़ चुका हूँ | साधुओं पर भीषण अत्याचार किये गये। जिसका वर्णन उनके ग्रंथ और फिर पढ़ने लगता हूँ। उनके श्री चरणों में नमोऽस्तु। 'समणमुतमिलं' एवं 'शैव तिरुतोण्डर' पुराणों में है। अपनी रक्षा मुनिश्रेष्ठ पू. योगसागर जी कृत 'पूजा' पृ. 18 पर पढ़ने | हेतु जैनों ने अपनी पूजा पद्धति वैदिक रूप में अपना ली। उत्तर भारत मिली। सुन्दर रचना है। मुनियों और श्रावकों के लिए प्रेरणाकारी | में शद्धाम्नाय का पोषण होता रहा। इसी कारण उत्तर भारत विशेषकर -अगस्त 2002 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524265
Book TitleJinabhashita 2002 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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