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सम्यग्दर्शन
आचार्य श्री विद्यासागर जी
समन्तभद्राचार्य का रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्रावकाचार का प्राचीनतम सूत्र ग्रन्थ है। उसमें सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया गया है
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभूताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
इसका अर्थ होता है परमार्थ मोक्षमार्ग में सहायीभूत आप्त, आगम और तपोभृत् (निर्ग्रन्थ गुरु) का तीन मूढ़ताओं से रहित, आठ अंगों से सहित, और आठ प्रकार के मद से रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
जिस प्रकार सघन वन के बीच रात्रि के निविड अन्धकार में मार्गभ्रष्ट मनुष्य सूर्योदय के होने पर इष्ट मार्ग को प्राप्त कर प्रसन्नता का अनुभव करता है, उसी प्रकार इस चतुर्गतिरूप संसार वन में मिथ्यात्व के सघन अन्धकार के कारण पथभ्रष्ट हुआ जो भव्यप्राणी अनादिकाल से छटपटा रहा था, वह अरहंत परमेष्ठी के द्वारा प्रतिपादित आगम और संसार की माया ममता से परे रहने वाले निर्ग्रन्थ गुरु की शरण पाकर प्रफुल्ल हो उठता है ।
अनादिकाल से जीव रागी-द्वेषी देव, रागद्वेष को बढ़ाने वाले शास्त्र और पंचेन्द्रिय विषयों में लीन गुरुओं को प्राप्त कर संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण से बचना चाहते हो तो आप्त, आगम और सद्गुरु की शरण को प्राप्त होओ। सम्यग्दर्शन आत्मा की वस्तु है, आत्मा का गुण है और आत्मा को छोड़ अन्यत्र उसकी उपलब्धि नहीं होती। वह बाजार से नहीं खरीदा जा सकता। वह आत्मानुभूति से होता है, आत्मज्ञान से नहीं। जिस प्रकार संसार के अन्य पदार्थों का ज्ञान होता है उसी प्रकार आत्मा का स्वरूप भी शास्त्र के अनुसार माना जा सकता है। परन्तु जिस प्रकार आत्मा का स्वरूप मैंने जाना है वह मैं ही हूँ इस प्रकार की अनुभूति सबको नहीं होती। जिसे होने लगती है वह सम्यग्दृष्टि कहलाने लगता है।
सम्यग्दर्शन होने पर इस जीव को सांसारिक कार्यों से स्वयं अरुचि होने लगती है और धार्मिक कार्यों के प्रति रुचि प्रकट होने लगती है। जिस प्रकार पित्त ज्वर के निकल जाने पर मिश्री मीठी लगने लगती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व का विकार निकल जाने पर धार्मिक कार्य अच्छे लगने लगते हैं। सम्यग्दर्शन, देव शास्त्र गुरु के प्रति अटूट विश्वास को प्रकट करता है। हर एक विषय में ऐसा क्यों ? वैसा क्यों ? इस प्रकार के तर्क से काम नहीं चलता। आखिर किसी स्थान पर अविचलित विश्वास करना ही पड़ता है। जब तक ऐसा विश्वास नहीं होता, तब तक काम बनता नहीं है।
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नारियल, जिसे श्रीफल कहते हैं, वह भेद-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने का उत्तम दृष्टान्त है। जिस प्रकार श्रीफल का गोला अलग है और उसके ऊपर का कठोर आवरण अलग है, उसी प्रकार आत्मा अलग है और उस पर लगा हुआ शरीर अलग है। जिस प्रकार गोले के ऊपर लगी हुई लाल, काली परत अलग है और शुभ्रवर्ण गोला अलग है, उसी प्रकार आत्मा अलग है। और उसके साथ लगा हुआ रागादिक भावकर्म अलग है। यद्यपि रागादिक भावकर्म आत्मा की ही परिणाति है तथापि वह संयोगज भाव होने के कारण आत्मा का निज का भाव नहीं कहा जा सकता।
अनीन्द्रिय पदार्थ का निर्णय करने के लिये आज आगम और निर्ग्रन्थ गुरु का आलम्बन लेना पड़ता है। मनुष्य के चर्म चक्षुओं की कितनी सामर्थ्य है ? वह सामने स्थिति पदार्थ को भी पूर्णतया जानने में जब समर्थ नहीं है, तब पृष्ठवर्ती पदार्थों को जानना तो और भी कठिन है। वीतरागप्रणीत और नि:स्पृह गुरुओं के द्वारा रचित ग्रन्थ ही इस काल में इस जीव के शरणभूत हैं। यदि आगम और निर्ग्रन्थ गुरु न हों तो पथप्रदर्शन कराने वाला फिर कौन है ? इस समय देव की अनुपलब्धि है, परन्तु आगम और निर्गन्थ गुरु विद्यमान हैं। पंचमकाल के अन्त तक निर्ग्रन्थ गुरु रहेंगे और वे हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। इन आगम और गुरुओं का भी अभाव हो जाता है, तो दुनिया में प्रलय मच जाता है। ये आगम और गुरु ही जीवों को आप्त की श्रद्धा कराते हैं, उनका मार्ग दिखलाते हैं।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय ? बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय ॥ जिस प्रकार गोविन्द का ज्ञान गुरु से ही होता है उसी प्रकार अरहंत देव का ज्ञान इन गुरुओं के द्वारा ही होता है। जिस दिन गुरुओं की उपेक्षा करोगे, उस दिन यथार्थ ज्ञान से भ्रष्ट हो जाओगे ।
इमली के पेड़ पर बैठा कबूतर जिस प्रकार अपने लक्ष्य की ओर दृष्टि रखता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थी के भीतर रहता हुआ भी अपने स्वरूप की ओर ही दृष्टि रखता है। सम्यग्दृष्टि वही है, जो अपनी अनादिकालीन भूल को समझकर दूर करने का प्रयत्न करता है।
श्रुतज्ञान अक्षरात्मक होता है और अक्षर का अर्थ जानते हो क्या ?" अक्षम् आत्मानं राति ददातीति अक्षरः " जो आत्मा को दे वह अक्षर है। एतावता आत्मज्ञान में सहायक शास्त्र ही यथार्थ में शास्त्र है। उनका अभ्यास करो तो अन्तर की दृष्टि खुल जायेगी।
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