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________________ जैन विश्वविद्यालयःक्यों और कैसे? डॉ. कुमार अनेकान्त जैन, व्याख्याता किसी भी धर्म, दर्शन और संस्कृति के उत्थान में निम्न दो । गृहस्थ पण्डित विद्वान् भी अधिक संख्या में थे तथा मंत्रदृष्टा साधु, घटक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पहला है उस धर्म, दर्शन | सन्यासी, ऋषि भी। आज भी यही स्थिति है। हमारे जैनाचार्यों को और संस्कृति का पालन-पोषण तथा अनुकरण करने वाला समाज तीर्थंकरों की सर्वज्ञता पर पूरा विश्वास था, किन्तु वे संख्या में और दूसरा घटक जिसकी भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है, वह है-- | अपेक्षाकृत कम थे। उनके श्रावकों में विद्वान् कम, किन्तु सम्पन्नों उस धर्म, दर्शन और संस्कृति का साहित्य और उसके ज्ञाता। जैन की संख्या अधिक थी। इन्हीं को साथ लेकर उन्हें जैन धर्म की विद्या, संस्कृति और उसके विशाल साहित्य में सुदीर्घ परम्परा जैन पताका लहरानी थी। ये संपन्न गृहस्थ भी विभिन्न क्षेत्रों में फैले होने संस्कृति की अनमोल धरोहर है। जैन साहित्य की, यह विशेषता | के कारण लोकधर्म से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाया करते थे। है कि उसका प्रणयन करने वालों में लगभग सभी सांसारिक जैनाचार्यों के समक्ष इन्हीं लोगों के साथ, इन्हीं संसाधनों का मोहमाया से दूर वनों में वास करने वाले संयमी एवं तपस्वी संत | उपयोग करते हुए सिद्धान्त और संस्कृति को सुरक्षित रखने का ही रहे । गृहस्थ धर्म में रहकर साहित्य संवर्द्धन करने वाले श्रावक उपाय खोजना था। अत: उन्होंने वैसा मार्ग खोजा भी। वद्वानों ने भी उत्तरकाल में इसी भूमिका का निवर्तन बड़ी निष्ठा हमारी प्रारम्भिक नीति पूर्वक किया। जैनाचार्यों ने स्थिति को भांपते हुए अध्ययन-अध्यापन जैन शिक्षा का इतिहास . तथा शास्त्रलेखन की बागडोर स्वयं संभाली। इससे उन्हें दो लाभ तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के बाद से जब पूरे भारतवर्ष | थे, एक इससे उनका मोक्षमार्ग प्रशस्त होता था और दूसरा गृहस्थों में धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक क्षेत्रों में परस्पर संवाद एवं | को मार्गदर्शन मिलता था। गृहस्थों की सम्पन्नता का उपयोग तीर्थ प्रतियोगिता जैसा वातावरण बना हुआ था, उस समय तीन सौ | निमाण की प्रेरणा देकर किया, जिसके फलस्वरूप धर्म भावनाओं सठ मतावलम्बी इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाये हुए थे। उस से ओत-प्रोत श्रद्धालु मूर्तियाँ तथा उनकी प्रतिष्ठा हेतु मन्दिर बनवाने समय प्रत्येक धर्म के आचार्य और प्रवर्तक अपेक्षाकृत बहुत तीव्रता लगे। इस फैसले का सबसे अधिक सार्थक परिणाम यह आया कि से देश की नदियों, पर्वतों, तीर्थों, पूजा-स्थलों, वृक्षों, वायु, भारत में ही नहीं, वरन् विश्व के अनेक क्षेत्रों से आज भी खुदायी जल,पृथ्वी, अग्नि, आकाश इत्यादि प्राकृतिक तत्त्वों पर अपना- में मिल रही जैनमूर्तियों, मंदिरों के अवशेषों आदिके साक्षात् प्रत्यक्षअपना धार्मिक आधिपत्य स्थापित करने हेतु प्रयत्नशील थे, तब | प्रमाण निरन्तर प्राप्त होने के कारण, जैनों से ईर्ष्या करने वाले उन दूरद्रष्टा जैनाचार्यों ने, चाहे वे दिगम्बर रहे हों अथवा श्वेताम्बर, | विद्वान् भी जैन संस्कृति की प्राचीनता को नकार नही पाये। भी ने अपने-अपने क्षेत्रों में अपनी-अपनी प्रतिभानुसार विद्याओं हमारा योगदान की हर विधा के लिए एक विशाल साहित्य का संवर्द्धन करके | जैनाचार्यों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काँटे की टक्कर ली। संसार की प्रत्येक ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं को अपने-अपने | धर्म, दर्शन, अध्यात्म, गणित, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, वास्तुकला, गोगदानों से भर दिया। जैन साधु आध्यात्मिक, अनेकान्तवादी, | आयुर्वेद, तन्त्र-मन्त्र, भाषा, काव्य, चित्रकला,संगीतकला इत्यादि भहिंसक, अपरिग्रही और ज्ञान-ध्यान तपोरत: में विश्वास करने | अनेक विषयों पर उच्चकोटि के सहस्रों शास्त्रों को रचकर जैनेतर गले थे। उनकी रुचि निवृत्ति प्रधान थी। वे आत्मरसिया थे, फिर आचार्यों एवं विद्वानों को भी विस्मय में डाल दिया। इन विषयों में मी वे वैसे वातावरण में भी जैन सिद्धान्त, संस्कृति, साहित्य और | इनकी उपलब्धि इतनी अधिक मौलिक, खोजपूर्ण व गंभीर थी समाज को अधिक श्रेष्ठ प्रभावनायुक्त एवं गौरवशाली सिद्ध करने | कि जैनेतर आचार्य भी आश्चर्यचकित हो उठे। उनकी खण्डन की प्रवृत्ति का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। वाली तलवार भी इनको काट नहीं पाती थी और हमारी मारी तथा अन्य परम्पराओं की स्थिति अनेकान्तात्मक, अहिंसात्मक, विनम्र और गम्भीर प्रस्तुति की मामूली उन दिनों वैदिक संस्कृति का प्रभाव प्रवृत्तिपरक और पूरी सी सिलाई करने वाली सुई भी उन्हें चुभती थी। रह लौकिक होने के कारण जनमानस को आन्दोलित और प्रभावित | हमारी दशा कये हुए था। बौद्ध आचार्य अपनी पूरी शक्ति से उसका मुकाबला | जैनाचार्य पूरी ताकत से लगे रहे। ज्ञान-विज्ञान की र रहे थे, तभी इस मुकाबले में वे इतने अधिक निखरे और विविधताओं से साहित्य समृद्ध करते रहे, भोला समाज श्रद्धावशात् वकसित हुए कि वैदिक परम्परा के आचार्यों को भी उनका । उस विरासत को सुरक्षित रखने की कोशिश करता रहा, किन्तु वण्डन करने में बहुत श्रम व समय लगाना पड़ा। वैदिक परम्परा | कहीं हमारी नादानी हमें मार गयी तो कहीं अज्ञता। विरोधियों ने 5 पास बुद्धिजीवियों की एक लम्बी कतार थी। वहाँ धुरन्धर | हमारे शास्त्रों की होलियाँ जलायी। हमारे सामने आचार्यों एवं -अगस्त 2002 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524265
Book TitleJinabhashita 2002 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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