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निर्ग्रन्थ दशा में ही अहिंसा पलती है
संयम के बिना आदमी नहीं
यानी
आदमी वही है
जो यथा-योग्य
सही आ.....दमी है
हमारी उपास्य देवता
अहिंसा है
और
जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है
वहाँ निश्चित ही
हिंसा छलती है
अर्थ यह हुआ कि
ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है
और
निर्ग्रन्थ दशा में ही
अहिंसा पलती है,
पल-पल पनपती,
बल पाती है ।
हम निर्ग्रन्थ- पन्थ के पथिक है
इसी पन्थ की हमारे यहाँ
चर्चा-अर्चा-प्रशंसा
सदा चलती रहती है
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( मूकमाटी से साभार )
नमोऽस्तु
आचार्य श्री विद्यासागर जी
ठण्ड
मुनिश्री तुम परीक्षा दे रहे हो
और मैं परीक्षा में बिना बैठे ही
इतरा रहा हूँ
मानों गोल्ड मेडल मिल गया हो
ठण्ड तुम्हारी परीक्षा लेने आती है
और तुम्हारी तैयारी देख-देख
पराजित
ठगी-ठगी
प्रणाम कर लौटती हुई
मुझे खोजती है !
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और सारी कसर
मुझसे निकालकर विजय पताका फहराती हुई हिमालय में समा जाती है!
सरोज कुमार
'मनोरम' 37, पत्रकार कालोनी इन्दौर- 452001
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