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________________ - मंत्र " नमो अरहंतानं, नमो सिद्धानं " से हुआ है। इसमें अंकित है कि ईसा के 450 वर्ष पूर्व राजवंश था और कलिंगाधिपति खारवेल. मगधराज पुष्यमित्र पर चढ़ाई करके तीर्थंकर ऋषभदेव (प्रथम जिन तीर्थंकर) की मूर्ति वापस लाया था। यह भी इससे प्रमाणित होता है कि 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ही अनुयायी थे और उन्हीं की पूजा अर्चना किया करते थे । (जनरल ऑफ दि बिहार एण्ड ओडिसा रिसर्च सोसा. भाग 3, पृष्ठ 465) उपर्युक्त प्रमाणों से यह शक करने का कोई कारण नहीं बचता कि ऋषभदेव काल्पनिक चरित्र थे । यह अलग बात है कि उस इतिहास तक पहुँचने का वर्तमान इतिहासकारों के पास पुरातन शिलालेखों के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। हम न देख सकें इसलिये कुछ है ही नहीं, यह बात ही बेमानी है । मथुरा का कंकाली टीला पुरातात्त्विक उत्खनन में मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त देव निर्मित स्तूप और 110 शिलालेख, इतिहास के उपर्युक्त तथ्यों की प्रामाणिक पुष्टि करते हैं। स्तूप का निर्माण ईसा पूर्व 800 का अनुमानित है, जिसमें ईसा पूर्व दूसरी सदी से बारहवीं सदी की अनेक तीर्थकर मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। विंसेट ए स्मिथ के मतानुसार मथुरा के कंकाली टीले का स्तूप एवं शिलालेख जैन इतिहास की परम्परा की न केवल पुष्टि करते हैं, वरन् यह भी सिद्ध करते हैं कि ईसवी सन् के प्रारम्भ में जिन इतिहास अपने विशेष चिह्नों के साथ-साथ तीर्थंकर के इतिहास में दृढ़ आस्था रखते हैं। वैदिक प्रमाण ऋग्वेद 4.58.3 में ऋषभदेव को अनन्तचतुष्टयधारी कहा गया है ऋग्वेद में ही एक अन्य जगह जिन तीर्थंकर को ज्ञान का आगार आदि बताया गया है। ऋग्वेद में जैन मुनियों का उल्लेख वातरशना मुनियों के रूप में मिलता है। उपर्युक्त उल्लेख जैन धर्म को वैदिककालीन तो प्रमाणित करते ही हैं, यह भी सिद्ध होता है कि महावीर के बहुत पहले से तीर्थंकर होते आ रहे हैं, उन्हें काल्पनिक कहना ही कल्पना है। पौराणिक प्रमाण श्रीमद्भागवत, अग्निपुराण और विष्णुपुराण एवं स्कंध पुराण में ऋषभदेव की न केवल प्रार्थना की गई है, वरन् उनके कुल का भी वर्णन मिलता है। भागवत के प्रथम स्कंध के अध्याय तीन में भी उलिखित है कि ऋषभदेव का जन्म राजा नाभि की पत्नी मरुदेवी से हुआ था इत्यादि । महाभारत के शान्ति पर्व में तीर्थंकर आदिनाथ ( ऋषभदेव) को अत्यधिक महत्त्व दिया गया .. अन्य मत इतिहासकार मानते हैं कि वैदिक काल के पूर्व द्रविड़ नाग आदि मानव जातियाँ भारत की मूल निवासी थीं और ये श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध थीं । श्रमण धर्म का उपदेश इस युग में ऋषभदेव Jain Education International ने ही सर्वप्रथम दिया भी और वे ही प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। इसलिये पं. जवाहरलाल नेहरू ने जैसा कि "डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' में कहा है वैसा ही माना जाता है कि भारत के मूल निवासी जैन लोग हैं। श्रमण परम्परा भारत की प्राचीन परम्परा है और इस युग के जैन तीर्थंकरों की परम्परा ऋषभदेव से प्रारंभ मानी जाती है। श्री पी. आर. देशमुख ने I इण्डस सिविलाइजेशन ऋग्वेद एण्ड हिन्दू कल्चर" में पृष्ठ 344 में लिखा है कि जैनों के पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता से ही थे उन्होंने सिन्धु घाटी की भाषिक संरचना के बारे में बताया कि सिंधुजनों की भाषा प्राकृत थी । प्राकृत जनसामान्य की भाषा है। जैनों और हिन्दुओं में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन ग्रन्थ प्राकृत में हैं... जबकि हिन्दुओं के सभी ग्रन्थ संस्कृत में हैं । प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि जैन प्राग्वैदिक हैं और सिंधु घाटी से उनका संबंध था। देश और विदेश में कहा तो यह जाता है कि भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ का नाम भरत था और इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा, पहले इस देश का नाम " अजनाभ" था। भारत से बाहर वर्मा से दक्षिण चीन तक ऋषभदेव की ख्याति पहुँचती गई। डॉ. सिल्वा लेवी के मत से जावा- सुमात्रा आदि द्वीप समूहों के निवासियों में जैन मतालम्बी भी थे। अलासिया में 12 वीं सदी की एक रेशेफ मूर्ति पर खोज से प्रो. आर. जी. हर्ष ने यह प्रतिपादित किया था कि भारतीय तीर्थंकर ऋषभ का ही नाम वहाँ "रेशेफ' पड़ा। रेशेफ सींगों वाले देवता को कहते हैं और वृषभ यानी बैल भी सींगों वाले होते हैं। मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में ऋषभ को "बुल गॉड" कहा जाता था। सोवियत अरमोनिया में तैशव देव नाम से ऋषभदेव की अर्चना की जाती थी इत्यादि । "जैन साहित्य के इतिहास" कृति की भूमिका में डॉ. बासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है "यह सुविदित है कि जैन धर्म की परम्परा अत्यंत प्राचीन है । भगवान् महावीर तो अंतिम तीर्थंकर थे।...... भगवान् महावीर के पूर्व 23 तीर्थकर हो चुके थे। उन्हीं में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे । जैन कला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता है। ऋषभदेव के चरित्र का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी विस्तार से आता है.... । भागवत में इस बात का भी उल्लेख है कि महायोगी भरत, ऋषभ के शतपुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से यह देश भारतवर्ष कहलाया। ऋषभदेव के उपरांत 22 तीर्थंकर और हुए। अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी हुए सभी तीर्थंकरों ने अपने युग की प्रांसगिक समस्याओं के अनुरूप जिन धर्म के सिद्धातों की व्याख्याएँ कीं और जीवों के कल्याण का पथ प्रशस्त किया। जैन धर्म के मूल सिद्धांतों में कभी समझौते की कहीं गुंजाइश रही भी नहीं । भले ही संयम और तप का मार्ग कठिन होने से लोग इससे कम जुड़े, पर जितने जुड़ेंगे और जिन मार्ग पर चलेंगे उनका उद्धार होगा ही 'जैनम् जयतु शासनम् '। For Private & Personal Use Only 75, चित्रगुप्त नगर कोटरा सुल्तानाबाद, भोपाल - मई 2002 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org
SR No.524262
Book TitleJinabhashita 2002 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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