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________________ जैन जीवनदर्शन और समाज डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका आत्मधर्म के लिये नीरोग शरीर और दूध के लिये जैसे | क्षमादि धर्म के दस अंग देवदर्शन, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, शुद्ध पात्र की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मानव के लिये | तप, त्याग, श्रावक के षट्कर्म और अनित्य, अशरण आदि बारह स्वस्थ समाज का होना भी आवश्यक है। मनुष्य और समाज दोनों | भावनाएँ जैनत्व को परिपुष्ट करती हैं। ये सब धर्म के ऐसे महत्त्वपूर्ण की अनुपूरकता के प्रसंग में दोनों का स्वस्थ और आचारवान् होना | एवं अपरिहार्य आंगोपांग हैं, जिनके आचरण से मनुष्यमात्र अपने और भी आवश्यक है। व्यष्टि से समष्टि का निर्माण होता है। दोनों | इहलोक के साथ पारलौकिक मार्ग को भी प्रशस्त कर सकता है। का पारस्परिक सम्बन्ध है। शरीर में प्रत्येक अंग का अपना स्थान | धर्म त्रिकालाबाधित शाश्वत होता है, पर समाज में परिवर्तन और महत्त्व है। शरीर का जो भी अंग विकृत होगा, शरीर उतने ही | होते रहते हैं। सामाजिक परम्पराएँ और मान्यताएँ युगानुसार बदलती अंशों में विकृत माना जावेगा। उसी प्रकार समाज के जितने व्यक्ति | रहती है। संसार और जीवनचक्र परिवर्तनशील हैं। जैन धर्म और सुधरे हुए होंगे तथा चारित्र, ज्ञान और अर्थ की दृष्टि से जितने पुष्ट | उसके समाज का आधार अनेकान्तात्मक है। वह आग्रहवाद से होंगे, समाज उतना ही प्रबुद्ध, उन्नत और सशक्त होगा। बहुत परे है। यथासमय यथावश्यक परिवर्तन स्वीकार करने में व्यक्तिगत एवं समष्टिगत कार्य की सफलता संकल्प, श्रम, | वह कभी नहीं हिचकिचाता। पर उसी परिवर्तन को स्वीकारता है, एकता और संगठन में निहित है। एकाकी व्यक्ति आत्मधर्म का तो | जिससे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में वृद्धि पालन कर सकता है, पर समाजधर्म के लिये संगठन अपेक्षित है। हो। जिस क्रिया के द्वारा हमारा जीवन ऊँचा उठ रहा हो, वह नीतिकार कहते हैं-असंगठित लोगों के जीवन में धर्म नहीं उतर | परिवर्तन और वह क्रिया अपनाने योग्य है। सामाजिक और वैयक्तिक सकता और न वे कभी जीवन में सुखी हो सकते हैं। किसी प्रकार | उत्थान के लिये परिवर्तन स्वीकार किये जा सकते हैं। बस, शर्त का गौरव भी उन्हें प्राप्त नहीं हो सकता और न जीवन में उन्हें यह है कि उस परिवर्तन से हमारे सम्यक्त्व को हानि न पहुँचे। कभी शान्ति मिल सकती है। हमारे आचार्यों ने अपेक्षित परिवर्तन के लिये अपने विवेक को ही न वै भिन्ना जातु-वरन्नीह धर्म, निर्णायक माना है। यशस्तिलक चम्पू' के रचयिता आचार्य सोमदेव न वै सुखं प्राप्नुवन्तीह भिन्नाः॥ सूरि का कथन उल्लेखनीय हैन वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति, सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । न वै भिन्नाः प्रशमं रोचयन्ति। यत्र सम्यक्त्व हानि न यत्र नो व्रत दूषणम्॥ वस्तुतः संगठित समाज ही शक्तिशाली होता है। अनन्त जैनों को वे सभी लौकिक क्रियाएँ मान्य हैं, जिनसे सम्यक्त्व परमाणुओं से मिलकर ही सृष्टि का निर्माण होता है। कई ईंटे | की हानि न हो और व्रतों को दोष न लगे। पुराणमित्येव न साधु मिलकर महल खड़ा कर देती हैं। छोटे-छोटे तिनकों की रस्सी से | सर्वम्- प्राचीन बातें सारी ही अच्छी हों, यह आवश्यक नहीं है। बड़े से बड़े मदोन्मत्त हाथी को बाँधा जा सकता है। कमजोर और असंगठित समाज कभी जीवित नहीं रह सकता। प्रकृति भी उसी प्राचीन हो कि नवीन छोड़ो, रूढियाँ जो हों बुरी। की सहायता करती है जो स्वयं अपनी सहायता करता है और बनकर विवेकी तुम दिखाओ, हंस जैसी चातुरी॥ अपने पैरों पर खड़ा होता है। संसार के इतिहास में ऐसी जातियाँ प्राचीन बातें ही भली हों, यह विचार अलीक है, आज नाम शेष रह गयी हैं, जो असंगठित थीं। विश्व के मानचित्र जैसी अवस्था हो जहाँ, वैसी व्यवस्था ठीक है। पर उनका कहीं पता नहीं। अतः हमें जीवित रहने के लिये दो जैन कोई जाति नहीं, वह तो धर्म है, जिसमें वर्ण, जाति के बातों की ओर ध्यान देना होगा और उन्हें अमल में लाना होगा। वे | लिये कोई स्थान नहीं। यह तर्क और श्रद्धा पर आधारित वैज्ञानिक हैं- हमारे व्यक्तिगत जीवन में धर्म उतरे और सामाजिक जीवन में | धर्म है, जिसमें अंधभक्ति के लिये कोई स्थान नहीं है। एक पाश्चात्य हम संगठित हों। विद्वान ने जैन धर्म से प्रभावित होकर जो लिखा है, वह उल्लेखनीय आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद है- 'Jainism does not ask you to have faith in any और समाज में अपरिग्रह-इन्हीं चार मणिस्तम्भों पर जैन धर्म का | thing which can not be sicentifically realised and सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है। अहिंसा, अनेकान्त, अस्तेय, | based on reality.' अपरिग्रह, सत्य, ब्रह्मचर्य जैन धर्म के मूल आधार हैं। उत्तम | अवैज्ञानिक और अवास्तविक तथ्यों पर जैन धर्म विश्वास 8 मई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524262
Book TitleJinabhashita 2002 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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