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________________ कमर कस कर खड़े हो गए थे। वे हर कष्ट सहकर, हर कमी को बर्दाश्त कर, मेरे ऊपर न्यौछावर होने को उद्यत थे। उन्हें विश्वास था कि जीत हमारी ही होगी। और हमने जोर-शोर से अपना चुनाव प्रचार प्रारंभ कर दिया। चुनाव प्रचार चला। जब तक ग्रेच्युटी की रकम हाथ में रही ठीक से चला। लेकिन ज्यों ही हाथ जरा तंग हुआ, मेरे समर्थकों का विश्वास डगमगा गया। उनका यह धंधे का टाइम था, इसलिए जहाँ से बेहतर 'आफर' मिला, चले गए। मैं अकेला रह गया। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी धरती पकड़ की माफिक अकेला ही आखिरी दिन तक चुनाव प्रचार में व्यस्त रहा। चुनाव के दिन तो इतना व्यस्त था कि वोट डालने भी न जा सका, वरना एक वोट तो मुझे अवश्य ही मिल जाता । वे नवम्बर के गुलाबी ठंड वाले दिन थे, जब लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए थे। बहुत दिनों में घर से बाहर नहीं निकला। रोज देर तक सोता रहता। उठता, कुछ खाता-पीता, फिर तुम जैसा ही बन जाऊँ डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' प्राण नहीं पाये अब तक, शूल शूल नहिं दिख पाया । कांटों को ही फूल समझकर अपने को ही भरमाया ॥ रोने का आदी बना रहा, नहिं सही धर्म को पहचाना। धूल चढ़ी बुद्धि पर हे प्रभु, जीवन जीवन नहिं जाना ॥ वर्तमान भी चूक न जाये, सपनों में नहिं खो जाऊँ ॥ ऐसा प्रभु बल दे दो मुझको, तुम जैसा ही बन जाऊँ ॥] ॥ अपना ही मन्दिर गिरा रहा, अपनी प्रतिभा खण्डित करता । अपनी वीणा के तार तोड़, 'हृत्तन्त्री बज जाये' कहता ॥ गीत नहीं क्यों जीवन में मधुमास नहीं क्यों आ पाता। पतझड़ से तो प्रेम किया है, फिर बसन्त क्यों टिक पाता ।। पर बसन्त के लिए प्राण है, पतझड़ फिर क्यों पाऊँ ॥2 ॥ , आये चमक हमारे जीवन में, भीतर का संगीत जगे । आनन्दित हो जाऊँ सच में चिन्ता में नहिं मन उलझे ॥ सोने की जंजीरों से ये पैर बँधे कैसे तोड़ें। अहंकार को तृप्त किया, बस, बीता क्षण कैसे पकडूं ॥ प्राणों में अब भक्ति जगे, श्वासों में कीर्तन कर लूँ ॥3 ॥ जीवन का पुष्प प्रफुल्लित हो, बस लहर कूल तक आ जाये। पत्थर में भी देवत्व छिपा, यदि भीतर समझ जो आ जाये । जीवन में सोया दीप जले, प्राणों में गीत उभर आये। आस्तिकता के पंख फैल जा, चोट लगे अन्तर जागे ॥ हे प्रभु! अब दरवाजा खोलो, कुछ सुगन्ध पा जाऊँ ॥4॥ सदर, नागपुर - 440001 Jain Education International सो जाता था। बच्चों से वार्तालाप लगभग बंद था । एक रोज खा-पीकर लेटा नहीं, बैठा रहा। पत्नी ने कहा'कुछ करते क्यों नहीं ?" 'क्या करूँ" वह अंदर से सब्जी की टोकनी उठा ले आईं। बोलीं 'कल बाजार में मटर अच्छा मिल गया, सो दो किलो लेती आई । ये पुराना अखबार सामने रखो और बैठे-बैठे मटर ही छील डालो। " मैं चुपचाप मटर छीलने में व्यस्त हो गया। बहुत दिनों बाद कुछ काम करते अच्छा लगा। साथ ही यह भी लगा कि राजनीति में घुसने से अच्छा तो यही था कि मैं बैठे-बैठे मटर ही छीलता ! प्लाट : 7, ब्लाक 56-ए, मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम) भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़ पिन-490020 लालचन्द्र जैन 'राकेश' नौ दरवाजे बन्द करे पै, उड़ गई सोन चिरैया । पड़ा रहा सोने का पिंजरा, कोऊ नहीं पुछैया ॥ (1) उड़ गई सोनचिरैया बड़े यत्नों से पाली पोषी, नौ मन तेल लगाया । देख-देख चमकीली चमड़ी फूला नहीं समाया ॥ आत्मतत्त्व को जान न पाये, काया के इतरैया । नौ दरवाजे..... ॥ है (2) माता-पिता, पुत्र- पत्नी सब मिलकर डाला घेरा । बचा न पाये चेतन धन को, लै गऔ काल लुटेरा ॥ नहीं लौटकर आये कोई, करे सैं रोवा -रैया ॥ नौ दरवाजे... ॥ (3) आँगन बैठी रोय अंगना, मरघट तक घरवारे । उतै की राख सिरा न पायी, होन लगे बटवारे ॥ सबने लीपा-पोती कर लाई, हो गई खा-खा खैया ॥ नौ दरवाजे... ॥ For Private & Personal Use Only (4) जब तक हंसा, तब तक रिश्ते, हो गइ ख़तम कहानी। बचपन गया खिलौनों के सँग, विषयन गई जवानी ॥ अब 'राकेश' भजन कर प्रभु का, जो चाहे हित भैया । नौ दरवाजे बन्द करे पै उड़ गई सोन चिरैया ॥ नेहरु चौक, गली नं. 4, गंजबसौदा, ( विदिशा ) म.प्र. - मई 2002 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org
SR No.524262
Book TitleJinabhashita 2002 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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