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भगवान् महावीर का सन्देश
25 अप्रैल 2002, महावीर जयंती के अवसर पर लाल परेड ग्राउण्ड भोपाल में किये गये प्रवचन का मुख्यांश
आचार्य श्री विद्यासागर जी
महावीर भगवान् जीवनकाल में सबको छोड़कर घर से | ओर बढ़ता चला जाता है। यह जो सुख सामग्री है वह बिना पाप चल गये। वे किसी स्थान पर रुके नहीं, कहीं मठाधीश नहीं हुए, | के उत्पन्न नहीं हो सकती। इसी सिद्धान्त को बताने के लिए महावीर कभी बँगले के लिए इन्तजार नहीं किया, कहीं कुर्सी की बात नहीं | भगवान् का जन्म आज हुआ था 2600 वर्ष पहले। उन्होंने उपदेश की। उन्होंने कहीं भी, कभी भी शासन-प्रशासन की चिन्ता नहीं दिया था कि अपने जीवनकाल में आवश्यकताओं को बढाओ की, किन्तु आत्मानुशासन की चिन्ता उन्होंने बहुत की। उस | नहीं और अपने आत्मानुशासन से उन्हें सीमित करो और इतना आत्मानुशासन का ही एकमात्र परिणाम है कि आज भी शासन सीमित करो कि आप दिगम्बर होकर भी जी सको। और प्रशासन दोनों ही उन्हें याद करते हुए और उन्हें श्रद्धाञ्जलि भगवान् महावीर की दिगम्बर मुद्रा को देखने से आपका अर्पित करते हुए नमन करते हैं।
विकार दूर हो जाता है। जैनधर्म की नींव भी बहुत मजबूती के महावीर भगवान् के विचार कैसे थे, इस बारे में हम कुछ । साथ महावीर ने रखी थी। और उन्होंने यह अनुकरण भगवान राम विचार करें। उन जैसे विचार हमारे मन में नहीं भी आते तो उनके का किया था। उससे पहले राम ने और तीर्थंकरों का किया था बारे में तो कुछ विचार हम कर सकते हैं। उनके बारे में विचार | और उनसे भी पहले तीर्थंकर हुए आदिनाथ ऋषभदेव। वे युग के करने लग जायेंगे, तो उन जैसे हमारे विचार उज्ज्वल हो सकते हैं।। आदि में हुए हैं। अन्तिम तीर्थंकर महावीर हैं। चौबीस तीर्थंकरों इस बारे में म.प्र. शासन ने एक घोषणा की, कि महावीर भगवान् का जीवन अपने-आप में महत्त्वपूर्ण है। तीर्थंकरों के जन्म का का अहिंसावर्ष एक वर्ष और बढ़ा देते हैं। यह इसलिए कि हम सौभाग्य भारतवर्ष को ही प्राप्त होता है, अन्य को नहीं। भारतअहिंसाधर्म को अच्छी तरह जी सकें। इसके लिए उस आदर्श को वासियो ! आप लोगों को सोचना चाहिए कि यदि आप भारत को और एक वर्ष सामने रखते हैं। यह ठीक ही है। दर्पण को एक बार और समृद्ध बनाना चाहते हो, तो यह पैसे से नहीं, धनदौलत से देखने से एक बार दिखता है, दो बार देखने से दो बार दिखता है, नहीं, महाप्रासादों से नहीं, बल्कि अहिंसा से ही संभव है। यदि बार-बार देखने से अपनी कमियाँ और देखने में आयेंगी। हम अहिंसा नहीं है जीवन में, तो यह राष्ट्र कभी भी सुरक्षित रहनेवाला 2600 वर्ष के उपरान्त महावीर भगवान् को याद कर रहे हैं कि | नहीं है। अहिंसा की दृष्टि से, उपकार की दृष्टि से, संस्कृति की रक्षा की भगवान् के पास किंचित् मात्र भी परिग्रह नहीं था, लेकिन दृष्टि से और मानवमात्र के विकास की दृष्टि से हमें आगे बढ़ने की यदि सम्पदा की ओर दृष्टि रखते हैं, तो उनके पास जो सम्पदा थी, प्रेरणा मिले।
वह यहाँ उपस्थित एक भी व्यक्ति के पास नहीं है। यदि समग्र आज हम अपने स्वार्थ में इतने डूबे हुए हैं कि हमें एक | विश्व की सम्पदा एकत्रित की जाय, तो वह महावीर भगवान् की दस मंजिला प्रासाद भी कम पड़ रहा है। दूसरे की कुटिया में कुछ | सम्पदा के सामने कोई मायना नहीं रखती। इसलिए उनको संसार भी नहीं है, इसके बारे में हम कुछ सोच नहीं पा रहे हैं। हमें चिन्ता | की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी। हमेशा यही रहती है कि हमारी और उन्नति हो, किन्तु उन्नति की भगवान् ने पाँच पापों के बारे में कहा कि ये सभी हमें एक सीमा होनी चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि दूसरे की छोटी पाताल की ओर ले जाते हैं। सभी लोग इन पाँचों पापों से परिचित कुटिया है और मैं मंजिलों पर मंजिलें बनाता जा रहा हूँ! मंजिलें हैं। सन्त और संसारी सभी इनसे परिचित हैं। एक बार और मैं जितनी ज्यादा बढ़ जायें, स्वर्ग उतने पास आ जाये, ऐसा नहीं है। आप लोगों को इनसे परिचित कराना चाहता हूँ। संभव है आप में कुटियावाला व्यक्ति भी स्वर्ग पहुँच सकता है, लेकिन बँगलेवाले से कोई इनसे अनभिज्ञ हो। हिंसा एक महान् पाप है। दूसरे के का पक्का नहीं है, पहुँच भी सकता है और नहीं भी। क्योंकि | प्राणों या अपने प्राणों को क्षति पहुँचाना हिंसा है । झूठ भी एक पाप कुटियावाले के पास सीमित इच्छाएँ हैं और बँगलेवाले के पास है। वह अहिंसा को समाप्त करने वाला पाप माना जाता है। चोरी इच्छाएँ बहुत ज्यादा हैं और जो बहुत गहरे पहुँच गई हैं। गहरी यह अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए दूसरे की सम्पदा के अपहरण होने के कारण उनका सम्बन्ध नीचे से भी तो जुड़ता चला जाता | का पाप है। कुशील आप सब जानते हैं। पाँचवाँ पाप है परिग्रह । है। जो व्यक्ति जितना ऊपर पहुँच जाता है. उसकी जड़ों का नीचे | जैसे-जैसे परिग्रह बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे हम भी ऊपर उठने भी उतना ही मजबूत होना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए यदि | लगते हैं, फिर कोई नीचे दिखता ही नहीं। यह सब पापों का बाप पुण्य ऊपर की ओर बढ़ता चला जाता है, तो पाप भी पाताल की है। इसीलिए महावीर कहते हैं- सारे पाप इस परिग्रह पाप के ही
-अप्रैल 2002 जिनभाषित 7
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