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________________ सम्पादकीय भोपाल की धरती पर लोकोत्तर आत्मा के चरण 17 अप्रैल 2002 को भोपाल की धरती पर पहली बार । कठोर तपश्चर्या, जीवों के प्रति असीम कारुण्य, आँखों से झाँकता उस लोकोत्तर आत्मा के मंगल चरण पड़े , जो दुनिया में परमपूज्य | ज्ञान का अद्वितीय प्रकाश, मुख पर विराजती वात्सल्यमयी स्निग्ध आचार्य विद्यासागर के नाम से प्रसिद्ध है। भोपाल की धरा पच्चीस मुस्कान और अत्यन्त शिष्ट, शालीन हावभाव, मुखमुद्राएँ, बोलचाल वर्षों से पलकें बिछाकर उस लोकोत्तर आत्मा की बाट जोह रही और चालढाल। इन चीजों ने उनमें एक दिव्य आकर्षण, एक थी। आखिरकार 17 अप्रैल 2002 म.प्र. की राजधानी के लिए वह | आध्यात्मिक सम्मोहन उत्पन्न कर दिया है। ऐतिहासिक दिन बन गया, जिस दिन यह लम्बी प्रतीक्षा समाप्त इन लाकोत्तर गुणों से सम्मोहित हो गया भोपाल का समूचा हुई। प्रातः काल छह बजे से ही नगर के लोगों की भीड़ 'सूखी | जनसमुदाय। जैन-अजैन जनता आतुर हो उठी आचार्यश्री को सेवनियाँ' ग्राम की ओर उमड़ पड़ी थी, जिस ओर से आचार्य श्री | निकट से देखने, उनके पास कुछ क्षण बैठने, बात करने और विद्यासागर जी अपने चालीस पिच्छियोंवाले विशाल संघ के साथ | उनका आशीर्वाद पाने के लिए। बड़े-बड़े राजनेता वोट की राजनीति भोपाल की तरफ विहार कर रहे थे। प्रातः 8 बजे आचार्यश्री नगर | को परे रखकर, केवल आध्यात्मिक उपचार की लालसा से में प्रविष्ट हुए। जनसमूह हर्षोन्मत्त हो नाचने लगा। जय-जयकार आचार्यश्री का शीतल, मृदु सान्निध्य पाने द्वार पर इकट्ठे होने लगे। के नारों से आकाश गूंज उठा। लोग आचार्यश्री के दर्शन के लिए | भूतपूर्व सूंखार डाकुओं ने आचार्यश्री की शरण में आकर पूर्वकृत पीछे-पीछे दौडने लगे। जनसमूह इतना विशाल था कि लगता था। पापों से मुक्ति का मार्गदर्शन प्राप्त किया। जैनेतर समाज के अनेक मानो जनसमुद्र ही अपनी सीमाएँ तोड़ कर उमड़ पड़ा हो। भीड़ | व्यसनी युवकों ने आचार्यश्री से आजीवन मद्य-मांस के त्याग का को नियंत्रित करने में पुलिस को बड़ी कठिनाई हो रही थी। व्रत लिया और उसकी सफलता के लिए आशीर्वाद पाया। अनेकों कई दिनों से उस लोकोत्तर, युगस्रष्टा महर्षि के स्वागत की | ने गोरक्षा के लिए गोशालाएँ स्थापित करने का संकल्प किया। तैयारियाँ चल रही थीं। जैनेतर जनता भी विद्यासागर के नाम से | बहुतों ने ब्रह्मचर्यादि व्रत ग्रहण किये, श्रावक प्रतिमाएँ धारण कीं। सुपरिचित हो चुकी थी। अत: उसमें भी उनके दर्शन की उत्कण्ठा | रामनवमी और महावीर जयंती के दिन आचार्यश्री की दो विशाल बढ़ गई थी। वह यह देखने के लिए उत्सुक थी कि आखिर वह प्रवचन सभाएँ हुईं। दोनों में भारी संख्या में श्रोता उपस्थित हुए कौनसी विभूति है, जिसकी लोग इतनी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे | और अत्यन्त शान्तिपूर्वक आचार्यश्री के उपदेशों को हृदयंगम किया। हैं ? उसमें ऐसी क्या चीज है, अन्य साधुओं से अलग कि वह । महावीर जयन्ती की प्रवचनसभा भोपाल के प्रसिद्ध प्रांगण 'लाल इतना प्रसिद्ध हो गया है? उसके दर्शनार्थ लोक इतने पागल हो उठे परेड ग्राउण्ड' में आयोजित की गई थी। सम्पूर्ण ग्राउण्ड श्रोताओं से भरा हुआ था। मुख्यमंत्री सहित प्रदेश के अनेक मंत्री, महापौर, और जब उन्होंने विद्यासागर की छवि को देखा तो देखते | सांसद और केन्द्रीय मंत्री उपस्थित हुए। ही रह गये। उन्होंने पाया कि सचमुच उनमें कुछ ऐसी चीजें है, जो । आचार्यश्री ने अपने लोकोत्तर चरित्र से भोपालवासियों के अन्य साधुओं में दृष्टिगोचर नहीं होती। वे चीजें हैं: नग्नवेश से हृदय पर जैन सन्तों के व्यक्तित्व की वह उत्कृष्ट छाप छोड़ी है, झलकती शिशुवत् निर्विकारता, सम्पूर्ण सुखसामग्री के परित्याग से जिसने लोगों के हृदय में जैन धर्म और दर्शन के प्रति अनायास प्रकट होने वाली इन्द्रियसुख की अनाकांक्षा और दुःखों से बहुमान उत्पन्न कर दिया . अनुद्विग्नता, सांसारिक चमक-दमक, ख्याति-पूजा और प्रभुत्व रतनचन्द्र जैन के प्रति अनाकर्षण, संसार से मुक्त होने की उत्कट अभीप्सा, 6 अप्रैल 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524261
Book TitleJinabhashita 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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