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________________ बालवार्ता लोभ से परे है समयसार डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' मेरे प्यारे बच्चो ! | हो।" आपने कभी सुना होगा कि लोभ पाप का बाप है। जो महापंडित राजा के उत्तर से अप्रभावित ही रहा और पुनः लोभ हमें सुखपूर्वक जीने, खाने, पीने भी नहीं देता, वह कभी निवेदन किया कि जहाँ आपने अनेक विद्वानों को अवसर दिये हैं, अच्छा हो भी नहीं सकता। जो संसार में सुख चाहते हैं, उन्हें लोभ वहाँ मुझे भी एक अवसर अवश्य दें। या लालच छोड़ना ही पड़ेगा। वरना वह शहद में फँसी मक्खी की अन्ततः राजा ने भी स्वीकृति दे दी। तरह मृत्यु की गोद में चला जायेगा। नीतिकार तो कहते हैं किसाईं इतना दीजिए, जामैं कुटुम समाय। शुभमुहूर्त में राजा को 'समयसार' समझाना प्रारंभ किया मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय। गया। महापंडित धर्मशील पहले गाथा पढ़ते। राजा को उच्चारण आजकल अपने जैन समाज में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव करने के लिए कहते और फिर प्रत्येक शब्द के अन्वय-अर्थ द्वारा रचित 'समयसार' ग्रन्थ पढ़ने के प्रति एक वर्ग में बड़ी बताते। जब शब्दों का अर्थ समझा लेते तो पदों का और अन्त में आग्रही सोच है। वे सोचते हैं और उन्हें समझाया भी यही जाता भावार्थ समझाते। इस तरह समझाते-समझाते छह वर्ष बीत गये। है कि बस, एक 'समयसार' पढ़ लो तो नैया पार हो जायेगी। ऐसे अब महापंडित धर्मशील को लगा कि मानो उन्होंने राजा को ही लोगों के लिए यह कहानी है जिसे आप पढ़ें, सुनें और निर्णय 'समयसार पूरी तरह समझा दिया है। पूरी तरह आश्वस्त होने पर करें कि पहले लोभ छोड़ें कि पहले 'समयसार' पढ़ें? उन्होंने राजा से कहा-"हे राजन्! मैंने अपने विशिष्ट ज्ञान के बल पर आपको पूरे मनोयोग से 'समयसार' समझा दिया है। अब एक बार सोमपुर के राजा सोमसेन ने घोषणा की कि जो आपको भी अपनी घोषणा के अनुरूप मुझे अपने राज्य का आधा व्यक्ति या विद्वान् मुझे 'समयसार' समझा देगा, उसे मैं अपना आधा भाग देकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करना चाहिए।" राज्य दे दूंगा। आधा राज्य कोई कम नहीं होता, फिर जो राजा को देखने के ही सपने देखते हों उन्हें आधा राज्य मिलने की कल्पना राजा ने विचार किया कि महापंडित धर्मशील का कहना से ही रोमांच होने लगता है। जब ऐसे लोगों को राजा की घोषणा तो उचित है। मैं 'समयसार' समझ भी चुका हूँ, किन्तु यदि मैं इसे पता चली तो अनेक ज्ञानी पण्डित 'समयसार' सिर पर लिए हुए | स्वीकार करता हूँ तो मुझे आधा राज्य देकर आधे राज्य से वंचित राजा के पास आये और राजा को 'समयसार' समझाने लगे, किन्तु होना पड़ेगा, क्यों न कोई उपाय सोचा जाये। वे सफल नहीं हो सके। जब भी वे विद्वान 'समयसार' को पूरी जिसके मन में लोभ जागृत हो गया है ऐसा वह राजा तरह समझाने का दावा करते, राजा कुछ-न-कुछ मीन-मेख | कुटिलता की मुस्कान ओढ़कर बोला - "महापंडित, आपने निकालकर कहता कि "पण्डित जी। आपने मेहनत तो खूब की, | 'समयसार' भले ही समझाकर सन्तुष्टि पा ली हो, किन्तु मैं तो इसी पर मैं आपके समझाने से सन्तुष्ट नहीं हूँ। लगता है, अभी भी बात पर अटका हूँ कि जो समय जगत् में कालसूचक प्रसिद्ध है ‘समयसार' में कुछ सार शेष है, जहाँ तक आपकी बुद्धि नहीं पहुँच | वह आत्मा का पर्याय कैसे हो सकता है? चूँकि मेरे संशय समाप्त पा रही हैं।" नहीं हुए हैं। अतः अपनी घोषणा कैसे पूरी करूँ और क्यों करूँ। राजा के इस कथन को सुनकर पंडितगण निराश हो जाते। | राजा के इस प्रकार अप्रत्याशित वचन सुनकर महापंडित वे पुनः 'समयसार' समझाते, किन्तु राजा आधे राज्य के बारे में | धर्मशील अपना आपा खो बैठे और जोर से बोले- "राजन्! आप सोचकर कुछ न कुछ नया प्रश्न खड़ाकर निरुत्तर कर देता। झूठ बोल रहे हैं। आपको आधे राज्य का लोभ जाग गया है ___ कुछ समय पश्चात् एक महापण्डित धर्मशील आये और इसलिए आप पूरी तरह से समझ जाने के बाद भी नासमझी का उन्होंने राजा के पास जाकर निवेदन किया कि-"राजन्! अगर ढोंग कर रहे हैं।" आपकी आज्ञा, हो तो मैं आपको 'समयसार' समझाना चाहूँगा।" "अधिक वाचाल मत बनो पंडित, जानते नहीं, मैं यहाँ राजा ने कहा , “महापंडित, आप व्यर्थ ही परेशान हो रहे का राजा हूँ। यदि अधिक धृष्टता दिखाई तो सूली पर टैंगवा दूंगा। हैं। आज तक कोई मुझे 'समयसार' नहीं समझा पाया है। मेरा ज्ञान राजा ने गुस्से से कहा और मन में सोचा कि आधा राज्य बचाने के कोई कम नहीं है। मैंने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया है। एक लिए यह क्रोध दिखाना जरूरी है। बार आप और सोच लें कि आपका और हमारा समय बर्बाद न यह अप्रिय प्रसंग चल ही रहा था कि एक महायोगी वहाँ -अप्रैल 2002 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524261
Book TitleJinabhashita 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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