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________________ पा रहा है। स्वयं को नहीं खोज पा रहा है। बनकर उसे परतंत्र बनाये रखने में रस लेता है। यही उसकी महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन मृत्यु-शैय्या पर थे। एक पत्रकार | स्वतंत्रता को बाधित किये है। ने उनसे अंतिम इच्छा जाननी चाही कि मरने के बाद दूसरे जन्म में भगवान् महावीर ने 'परतंत्रता की बेड़ी'/अदृश्य जंजीरें आप क्या होना चाहेंगे? काटने के लिए पहले मोह को विसर्जित करने की बात कही। मोह आइन्स्टीन ने कहा - "कुछ भी हो जाऊँ, पर एक वैज्ञानिक दुख का जनक है। जहाँ मोह है वहाँ वह परवश है। मोह कैसे दूर नहीं। हो? महावीर ने सूत्र कहा-"संसार के प्रति जितना कर्ता और जिसने सारी जिन्दगी विज्ञान के लिए समर्पित की हो, | भोक्ता बनोगे, कर्मों का बंधन उतना ही जकड़ेगा और मोह के उसके मन में विज्ञान के प्रति इतना अफसोस । आइन्स्टीन ने कहा- व्यामोह से विरत नहीं हो सकोगे। उसके विपरीत जितना ज्ञाता "सुबह 10 बजे डॉक्टरों ने जबाब दे दिया कि तुम चौबीस घण्टे और द्रष्टाभाव अपने अंदर संसार के प्रति पैदा करोगे, उतनी निरासक्ति से ज्यादा नहीं जी सकोगे। मैंने सैकड़ों आविष्कार किये, मगर | होगी, अस्पर्श भाव होगा और कर्म बंधन की परवशता से उन्मुक्त उस तत्त्व की खोज करने का कभी प्रयास नहीं किया, जिसके | होगे। कारण मैं अब तक जीवित हूँ , जिसके निकल जाने के बाद मनुष्य शरीर का दास बनकर रह गया। देह सौन्दर्य में आइन्स्टीन, आइन्स्टीन नहीं मात्र माटी का पुतला रह जायेगा। | आत्मसौन्दर्य भूल गया। देह/इन्द्रियाँ क्षरणशील हैं, इसलिए इनका सबको जाना पर उस "एक से अनजाना रहा। उसकी खोज नहीं | सौन्दर्य भी क्षरणधर्मा है। आत्मा अक्षर है, अत: आत्म-सौन्दर्य कर पाया।" शाश्वत है। . सही है, जिसे पाना है, जो होना है, वह तुम्हारे भीतर ही जब तक इन्द्रियों की वासना से ऊपर नहीं उठेंगे, स्वतंत्रता है। संयम से उस होने को प्रगट किया जा सकता है। संयम जीवन | | कोसों दूर खड़ी रहेगी। अतः मौलिकता में लौटने का सूत्र है की बुनियाद है। लेकिन नियम, व्रत, संयम, चारित्र ये सब प्रवचन | आत्म-स्वातंत्र्य का अवबोध । वासनाएँ हमारी परतंत्रता का तानाकी वस्तुएँ बन गयी हैं। इन पर सेमिनार आयोजित होने लगे हैं। बाना बुनती हैं। इस जाल से छुटकारा पाये बिना 'स्वतंत्रता' आकाश जीवन से सम्यक्चारित्र कट गया है। इसलिए आज कट गया है। इसलिए आज | कुसुम है। अध्यात्म घुटने टेक कर विज्ञान का दास बन गया है। खोटीवृत्तियों/ विश्व की बेहताशा बढ़ रही हिंसा व क्रूरता, अशान्ति व कृतियों के कारण उसका ज्ञान चारों खाने चित्त है। आतंकवाद, युद्ध व संघर्ष की विभीषिका ने अहिंसा के मसीहाचारत्र क नाम पर आदमा छद्मा बन गया है। वह मादर | महावीर को ज्यादा प्रासंगिक बना दिया है। अहिंसा की मशाल से में आत्म-चेतना के सरोवर में तैरता है, परन्तु बाहर निकलते ही | ही हिंसा का तमस/अंधकार दूर होगा। शरीर की सेवा में लग जाता है। जो आत्म-बोध उसने मंदिर में विश्व की ज्वलन्त समस्याओं को हल करने के लिए महावीर अर्जित किया था, देहरी पार करते ही संसारार्पण कर देता है। की अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त आज ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन इसीलिए चारित्र का फूल मुरझाया हुआ है। इसमें न ताजगी है गये हैं। आणविक हथियारों की प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ में महावीर और न ही सुरभि। जीवन में पूज्यता आती है सम्यक्चारित्र और की देशना, ठहरने का शुभ संकेत दे रही है। कह रही है रुको और संयमाचरण से। रोको इन आणविक अस्त्रों के बढ़ते भण्डारों को, तभी विश्वशान्ति "वीतराग विज्ञान" अद्भुत शब्द है, महावीर की दिव्य की वार्ताएँ सार्थक हो सकती हैं। ध्वनि से निकला हुआ । वीतरागता एक सिद्धान्त (Theory)/दर्शन हो सकती है, परन्तु उसके साथ विज्ञान जुड़ जाने से उसमें कत्लखानों के बाहरी अहातों में मूक पशुओं का जमाव देखकर महावीर की अहिंसा बिलखने लगी है। एक दर्द भरा प्रश्र क्रियात्मकता/ प्रयोग (Experiment) जुड़ गया। जीवन में वीतराग इन पशुओं की ओर से महावीर पूछ रहे हैं राजनीति की सत्ता पर भाव झलकने लगे, जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब, तब वह वीतराग बैठे मनुष्यों से कि क्या इन्हें जीने का अधिकार नहीं है ? यह प्रश्न विज्ञान बन जाता है। संयम आचरण से जुड़ा व्यावहारिक तत्त्व है, जो श्रम/ अनुत्तरित है। पुरुषार्थ से पाया जाता है। श्रमण वही, जो संयम की परिपूर्णता भोगवाद की संस्कृति में, लिप्सा और अराजकता के इस हासिल करे। महावीर की देशना थी कि चारित्र/ संयम की पूर्णता बदलते परिवेष और पर्यावरण में महावीर ज्यादा प्रासंगिक बन के बिना निर्वाण-सुख नहीं मिल सकता। गये हैं। महावीर को पाने की प्यास मनुष्यता का तकाजा है। संयम के अनुशीलन से कर्मों की पराधीनता कट सकती विवेक/ प्रज्ञा की आँख खोले तो महावीर को सामने खड़ा पायेंगे है, कटती है और आत्मा अपनी मौलिकता में लौटता है। और यदि संवेदना की/विवेक की आँख बंद कर ली तो सच स्वतंत्रता - मनुष्य अपनी वासना के कारण परतंत्र/पराधीन | मानिये, खड़े हुए महावीर भी खो जायेंगे। महावीर को खोजें और है। अपनी कामनाओं का गुलाम है। उसकी अनंत इच्छाओं/ | जिये अपने जीवन जियें अपने जीवन में। अभिलाषाओं के चक्रव्यूह ने आत्मा की स्वतंत्रता को ओझल बना शा.उ.मा.वि.क्र.-3 के सामने दिया है। वह परंतत्र नहीं होना चाहता, परन्तु दूसरों का स्वामी | बीना (म.प्र.)470113 -अप्रैल 2002 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524261
Book TitleJinabhashita 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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