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________________ भगवान् महावीर की प्रासंगिकता प्राचार्य निहालचंद्र जैन युग पुरुष /तीर्थंकर कालातीत होते हैं । कैवल्य का दिव्य | बचने का रहा। अवदान उन्हें अमरता की सौगात दे जाता है। वे समय की धारा में | समता की पावन गंगा के दो कूल हैं- 1. सहिष्णुता, 2. विलीन नहीं होते हैं। जब भीतर आलोकित हो जाता है, तो बाहर | सह अस्तित्व के कुहासे/अंधकार मिट जाते हैं। अंधकार तो अज्ञान और मोह दिगम्बरत्व की कल्पना सहिष्णु बने बिना नहीं की जा का होता है, भगवान् महावीर के भीतर से मोह और अज्ञान का | सकती। आकाश की ओढ़न और पृथ्वी की बिछावन, आकाशअंधेरा समाप्त हो जाने से वे सर्वकालिक बन गये। सा हृदय और पृथ्वी सी क्षमा, जब जीवन की परिभाषा बन जाये, भगवान् महावीर की पहचान बाहरी वैभव या चमत्कार | तो दिगम्बरत्व की पहचान प्रकट होती है। से नहीं जुड़ी है। वे सर्वदेशिक व सर्वकालिक इसलिए हो गये कि | साधना चाहे अणुव्रत पालन की हो या महाव्रत के अनुशीलन वे अपनी आत्मवृत्तियों से युद्ध कर और अन्तः कषायों को परास्त | की, सहिष्णुता के पाँव बिना, वह लँगड़ी है। अनुशासन बाहरी हो कर विजयी बने। इस आत्म-देवत्व के कारण वे महावीर कहलाये। | या भीतरी, सहिष्णुता उसकी प्राथमिक शर्त है। इसके बिना स्वतंत्रता किसी बाहरी युद्ध की विजय से नहीं, आत्म-विजय के कारण उच्छृङ्खल है। उपसर्ग सहिष्णुता के मित्र बन जाते हैं। श्रमण जन्म-जयन्ती (जन्मकल्याणक) 2600 वर्षों से पूज्य भाव व साधना में बाईस परिषह कहे गये। सहिष्णुता की ढाल से परिषहों श्रद्धा से मनती आ रही है। मानवीय मूल्य कभी पुराने नहीं पड़ते। का आक्रमण झेला जा सकता है। महावीर की दिव्य-देशना, मानवीय मूल्यों के संरक्षण /संबर्धन समता की फसल में सहिष्णुता पैदा होती है। दिवेक से सहिष्णुता के लिए भारत वसुन्धरा पर हुई थी, जिनकी देशना में 1.समता | को बल मिलता है और सहिष्णुता से सहअस्तित्व की अवधारणा 2.सहिष्णुता 3. सहअस्तित्व 4.संयम और 5. स्वतंत्रता के | का विकास होता है। पंचशील-सूत्र उद्भासित हुए थे, जो सर्वदेशिक /सर्वकालिक सह अस्तित्व - सहअस्तित्व के गर्भ में अनाग्रह के बीज बने। वे आज भी उतने ही सामयिक और प्रासंगिक हैं, जितने उस | छिपे होते हैं। वस्तुतः संघर्ष का जनक हमारी आग्रहवृत्ति है। समय थे जब दिव्य ध्वनि से अवतरित हुए थे। आग्रहवृत्ति सत् असत् और हेय-उपोदय को नहीं, स्वार्थ को समता - यह प्रकृति का अवदान है। इसलिए महावीर देखती है। आग्रहवृत्ति से मिथ्यात्व को बल मिलता है और जहाँ सा नैसर्गिक पुरुष दूसरा खोज पाना मुश्किल है। उनमें आकाश | मिथ्यात्व है, वहाँ अविवेक है। अविवेक संघर्ष और युद्ध रचता सी निरवलम्बता और तरुवर सी नैसर्गिकता थी। जैसे प्रकृति ने उन्हें अवतरित किया हो। आवरण उन्हें स्वीकार ही नहीं रहा। 'महाभारत' अविवेक का संग्राम था, जो आग्रह की भूमि उनका दिगम्बरत्व/वीतरागत्व प्रकृति की हकीकत थी। जैसे प्रकृति | पर लड़ा गया था। में छिपाने को कुछ नहीं है, वैसे महावीर निरभ्र थे। ___भगवान् महावीर ने स्याद्वाद और अनेकान्त के आलोक भगवान् महावीर की खोज अनिन्द्रिय-मूलक थी, इन्द्रिय | में सहअस्तित्व को प्राण दिये। आचरण में रूपायित हुआ अनेकान्तजनित नहीं। इन्द्रियों का संबंध बाहर से है, पदार्थों से है और | सहअस्तित्व की अनुकंपा से। विज्ञान की सारी खोज-पदार्थों से जुड़ी है। विज्ञान शरीर और मन | सह अस्तित्व के आँगन में "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" का से लेकर भूत तत्त्वों तक फैला है, जबकि अनिन्द्रिय की खोज अमर सूत्र पुष्प बनकर फूला-फला। प्रत्येक प्राणी सापेक्षता और "वीतराग-विज्ञान” पर टिकी है। वह अध्यात्म की यात्रा है। वह सह अस्तित्व से जुड़ा है। एक का उपकार दूसरे को उपकृत कर आत्मानुसंधान है। रहा है। इसके बिना न जीवन संभव है और न जीवन का विकास। वीतराग विज्ञान के हिमालय से समता की पावन-गंगा | प्रकृति में अकारण कुछ नहीं है भले ही हमारी अज्ञानता अवतरित होती है। उस गंगा को बुलाने के लिए आत्म-पुरुषार्थ | उसमें प्रयोजन न ढूँढ पाये। वृक्ष हमसे साँसे ले रहा और हम वृक्षों का भागीरथ चाहिए। के कारण प्राणवायु पा रहे हैं। मनुष्य मनुष्य से ही नहीं वृक्षों तक जीवन-मृत्यु में, जय-पराजय में, सुख-दुख में, प्रशंसा | से जुड़ा है। लेकिन हमारा अहंकार हमें तोड़ता है। अहंकार और निन्दा में समताशील बने रहना, यह वीतरागविज्ञान का करिश्मा | समस्याएँ पैदा करता है। सहअस्तित्व आदमी को आदमी से ही हो सकता है। संसारी सुवर्ण एवं मृतिका को समभाव से कैसे देख | नहीं, वरन चराचर से जोड़ता है। यह समस्याओं का निरसन कर सकता है? विश्व शान्ति की स्थापना में अहम् भूमिका निभाता है। समता जीव की मौलिकता है, उसकी प्रकृति है, जबकि | संयम- मनुष्य के पास 'ज्ञान' का अनंत भण्डार है। उसकी विषमता उसकी विकृति है। महावीर का दिव्य संदेश विषमता से | पकड़ में सब कुछ कैद हो रहा है, केवल वह स्वयं को नहीं पकड़ 12 अप्रैल 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524261
Book TitleJinabhashita 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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