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अनेकान्त : भगवान् महावीर का दूसरा सिद्धान्त अनेकान्त | का वह पलड़ा जिस पर वजन ज्यादा हो वह स्वभाव से ही नीचे की का है। अनेकान्त का अर्थ है- सहअस्तित्त्व, सहिष्णुता, अनाग्रह की | ओर जाता है। ठीक इसी तरह से यह परिग्रह मानव जीवन को दुःखी स्थिति । इसे ऐसा समझ सकते हैं कि वस्तु और व्यक्ति, विविध धर्मी | करता है, संसार में डुबोता है। भगवान् महावीर ने कहा या तो है। जिसका सोच, चिंतन, व्यवहार और बर्ताव अन्यान्य दृष्टियों से | परिग्रह का पूर्णतः त्याग कर तपश्चरण के मार्ग को अपनाओ भिन्न-भिन्न है। अब वह यदि एकांगी/एकांती विचार/व्यवहार के पक्ष | अथवा पूर्णत: त्याग नहीं कर सकते, तो कम से कम आवश्यक पर अड़कर रह जाता है तो संघर्ष/टकराव की स्थिति बनती है। | सामग्री का ही संग्रह करो। अनावश्यक, अनुपयोगी सामग्री का अनेकान्त का सिद्धान्त ऐसी ही विषम परिस्थितियों में समाधान देने तो त्याग कर ही देना चाहिए। आवश्यक में भी सीमा दर सीमा वाला है। यह वह सिद्धान्त है जो वस्तु और व्यक्ति के कथन/पहलू | कम कर करते जायें यही 'अपरिग्रह' का आचरण है, जो हमें को विभिन्न दृष्टियों से समझता है और उसकी सार्वभौमिक सर्वांगीण | निरापद, निराकुल और उन्नत बनाता है। सत्ता के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में | अकर्त्तावाद - भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत साफ-साफ बात यह है कि एकान्त की भाषा 'ही' की भाषा है, अकर्त्तावाद' का है। अकर्त्तावाद का अर्थ है "किसी ईश्वरीय रावण का व्यवहार है, जबकि अनेकान्त की भाषा 'भी' की भाषा है,
शक्ति/सत्ता से सृष्टि का संचालन नहीं मानना।" ईश्वर की प्रभुता/सत्ता राम का व्यवहार है। राम ने रावण के अस्तित्व को कभी नहीं नकारा, तो मानना पर कर्त्तावाद के रूप में नहीं। भगवान् कृतकृत्य हो गये हैं, किन्तु रावण राम के अस्तित्व को स्वीकारने कभी तैयार ही नहीं। इसलिए अब वह किसी तरह के कर्तृत्व में नहीं है। कण-कण और यही विचार और व्यवहार संघर्ष का जनक है, जिसका परिणाम क्षण-क्षण की परिणति स्वतंत्र/स्वाधीन है। प्रत्येक जीव अपने द्वारा विध्वंस/विनाश है। 'ही' अहंकार का प्रतीक है। "मै ही हूँ" यह किये हुए कर्मों का ही फल भोगता है। उसके शुभ कर्म उसे उन्नत उसकी भाषा है, जो कि संघर्ष और असद्भाव का मार्ग है। अनेकान्त और सुखी बनाते हैं जबकि अशुभ कर्म अवनत और दुःखी बनाते हैं। में विनम्रता/सद्भाव है, जिसकी भाषा 'भी' है। 'ही' का परिणाम दोजख और जन्नत का पाना प्राणी के द्वारा उपार्जित अच्छे बुरे कर्मों 36 के रूप में निकलता है, जिसमें तीन छह की तरफ और छह तीन का फल है। इसे किसी अन्य के कारण नहीं अपने कर्म के कारण ही की तरफ नहीं देखता किन्तु 'भी' का परिणाम 63 क रूप में आता है पाते हैं। यही अवधारणा अकर्त्तावाद का सिद्धांत है। कहा भी गया जिसमें छह तीन और तीन छह क गले से लगता है। यही 63 का सम्बन्ध विश्वमैत्री, विश्वबन्धुता, सौहार्द, सहिष्णुता, सहअस्तित्व और
कोऊ न काऊ सुख दुःख करि दाता, अनाग्रह रूप अनेकान्त का सिद्धान्त है। यही अनेकान्त की दृष्टि
निज कृत कर्म भोग फल भ्राता। दुनिया के भीतर बाहर के तमाम संघर्षों को टाल सकती है। युग के
कर्मप्रधान विश्व करि राखा, आदि में आदिनाथ के पुत्र भरत और बाहुबली के बीच वैचारिक
जो जस करे सो तस फल चाखा।। टकराहट हुई, फिर युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। मन्त्रियों की आपसी
यह सिद्धांत इसलिए भी प्रासंगिक है कि हमें अपने किए गए सूझबूझ से उसे टाल दिया गया और निर्धारित दृष्टि, जल और मल्लयुद्ध
कर्म पर विश्वास हो और उसका फल धैर्य, समता के साथ सहन के रूप में दोनों भ्राता अहिंसक संग्राम में सामने आये। यह दो
करें। वस्तु का परिणमन स्वतंत्र/स्वाधीन है। मन में कर्तृत्व का व्यक्तियों की लड़ाई थी। फिर राम-रावण का काल आया जिसमें दो
अहंकार न आये और न ही किसी पर कर्तृत्व का आरोप हो, इस व्यक्तियों के कारण दो सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें हथियारों का
वस्तु-व्यवस्था को समझकर शुभाशुभ कर्मों की परिणति से पार हो, प्रयोग हुआ। हम और आगे बढ़े, महाभारत के काल में आये, जिसमें
आत्मा की शुद्ध दशा प्राप्त करें। बस यही धर्म चतुष्टय भगवान् महावीर एक ही कुटुम्ब के दो पक्षों में युद्ध हुआ और अब दो देशों में युद्ध
स्वामी के सिद्धांतों का सार है। वैसे अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, अकाम होता है। पहले भाई का भाई से, फिर व्यक्ति का व्यक्ति से, फिर एक
और अपरिग्रह रूप पंच सूत्र महावीर के प्रमुख सिद्धांत हैं। व्यक्ति पक्ष का दूसरे पक्ष से और अब एक देश का दूसरे देश से युद्ध चल
जन्म से नहीं, कर्म से महान बनता है, यह उद्घोष भी महावीर की रहा है और युद्ध का परिणाम सदैव विध्वंस ही निकलता है। हमें
चिन्तनधारा को व्यापक बनाता है। इसका आशय यह है कि प्रत्येक संघर्ष नहीं शांति चाहिए' और यदि सचमुच ही हमने यही ध्येय
व्यक्ति मानव से महामानव, कंकर से शंकर, भील से भगवान् बन बनाया है तो अनेकांत का सिद्धान्त, 'भी' की भाषा,अनाग्रही
सकता है। नर से नारायण और निरंजन बनने की कहानी ही महावीर व्यवहार को जीवन में अपनाना होगा।
का जीवन-दर्शन है, और यही इस जयंती पर्व का पावन संदेश है। अपरिग्रह - भगवान् महावीर का तीसरा सिद्धान्त अपरिग्रह
भगवान् महावीर की 2600वीं जन्म जयंती के पावन पर्व पर प्रभु से का है। परिग्रह अर्थात् संग्रह । यह संग्रह मोह का परिणाम है। जो
प्रार्थना करते हैं कि धरती रक्तरंजित नहीं, सदा सर्वदा 'शस्य श्यामला' हमारे जीवन को सब तरफ से घेर लेता है,जकड़ लेता है, परवश/पराधीन
हरी-भरी हो। प्राणि-प्राणि के प्राणों में करुणा का संचार हो। सब बना देता है, वह है परिग्रह । धन पैसा को आदि लेकर प्राणी के काम
तरफ अभय और आनंद का वातावरण बने। हिंसा, आतंक और में आनेवाली तमाम सामग्री परिग्रह की कोटि में आती हैं। ये वस्तुएँ
अनैतिकता खत्म हो। 'जियो और जीन दो' का अमृत-संदेश सभी हमारे जीवन को आकुल-व्याकुल और भारी बनाती हैं। एक तरह से
आत्माओं को प्राप्त हो। सौहार्द, शांति और सद्भावना हम सबके परिग्रह वजन ही है और वजन हमेशा नीचे की ओर जाता है । तराजू | अन्दर विकसित हो, बस यही कामना है। 10 अप्रैल 2002 जिनभाषित
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