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________________ तीर्थंकर महावीर : जीवन और दर्शन (भगवान् महावीर की 2600वीं जन्म जयंती पर विशेष आलेख) मुनि श्री समतासागर जी जिनशासन के प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें प्रथम | सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते रहे। 72 वर्ष की आयु में पावापुर आदिनाथ और अन्तिम महावीर स्वामी हैं। सामान्यतया लोगों को | (बिहार) में कार्तिक वदी अमावस्या की प्रत्यूत बेला में ईसा पूर्व यही जानकारी है कि जैनधर्म के संस्थापक भगवान् महावीर हैं, | 527 (15 अक्टूबर, मंगलवार) को उन्हें परम निर्वाण प्राप्त हुआ। किन्तु तथ्य यह है कि वह संस्थापक नहीं प्रर्वतक हैं। तीर्थंकर उन्हें | महावीर के निर्वाण के सम्बन्ध में कहा गया है कि एक ज्योति उठी, ही कहा जाता है जो धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। युग के आदि में | किन्तु कई-कई ज्योतियों ने जन्म ले लिया। एक दीये की लो ऊपर हुए आदिनाथ ने जिनका एक नाम ऋषभनाथ भी था, धर्म तीर्थ का | गई, किन्तु गाँव-गाँव, नगर-नगर धरती का कण-कण दीपों से प्रवर्तन किया, तत्पश्चात् अजितनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थं | जगमगा उठा। भगवान् महावीर स्वामी तो मोक्ष के वासी हुए, पर प्रवर्तन की यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आई। उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह और अकर्त्तावाद भगवान् महावीर का जन्म ईसा पूर्व 598 में विदेह देश स्थित | के सिद्धांतों का प्रकाश पल-पल पर आज भी प्रासंगिक बना हुआ (वर्तमान बिहार राज्य) वैशाली प्रान्त के कुण्डपुर नगर में चैत्र सुदी त्रयोदशी 27 मार्च, सोमवार को हुआ था। उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में | अहिंसा - प्राणियों को नहीं मारना, उन्हें नहीं सताना। जैसे चन्द्र की स्थिति होने पर अर्यमा नाम के शुभ योग में निशा के अन्तिम हम सुख चाहते हैं, कष्ट हमें प्रीतिकर नहीं लगता, हम मरना नहीं प्रहर में उन्होंने जन्म लिया। धरती पर जब भी किसी महापुरुष का चाहते वैसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं, कष्ट से बचते हैं और जीना जन्म होता है, तो वसुधा धन-धान्य से आपूरित हो जाती है। प्रकृति चाहते हैं। हम उन्हें मारने/सताने का मन में भाव न लायें, वैसे वचन और प्राणियों में सुख शान्ति का संचार हो जाता है। सब तरफ आनन्द न कहें और वैसा व्यवहार/कार्य भी न करें। मनसा, वाचा, कर्मणा का वातावरण छा जाता है, सो महावीर के जन्म के समय भी ऐसा ही प्रतिपालन करने का महावीर का यही अहिंसा का सिद्धान्त है। हुआ। जिस कुण्डपुर नगर में महावीर का जन्म हुआ था, वह प्राचीन अहिंसा,अभय और अमन चैन का वातावरण बनाती है। इस सिद्धान्त भारत के व्रात्य क्षत्रियों के प्रसिद्ध वज्जिसंघ के वैशाली गणतन्त्र के का सार सन्देश यही है कि प्राणी-प्राणी के प्राणों से हमारी संवदेना अन्तर्गत था। महावीर के पिता सिद्धार्थ वहाँ के प्रधान थे। वे ज्ञातृवंशीय | जुड़े और जीवन उन सबके प्रति सहायी/सहयोगी बने। आज जब काश्यप गोत्रीय थे तथा माता त्रिशला उक्त वजिसंघ के अध्यक्ष | हम वर्तमान परिवेश या परिस्थिति पर विचार करते हैं, तो लगता है लिच्छिविनरेश चेटक की पुत्री थीं। इन्हें प्रियकारिणी देवी के नाम से | कि जीवन में निरन्तर अहिंसा का अवमूल्यन होता जा रहा है। भी संबोधित किया जाता था। जीवन की विभिन्न घटनाओं को लेकर, | व्यक्ति, समाज और राष्ट्र बात अहिंसा की करते हैं, किन्तु तैयारियाँ वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर और वर्द्धमान ये पाँच नाम महावीर युद्ध की करते हैं। आज सारा विश्व एक बारूद के ढेर पर खड़ा है। के थे। वर्द्धमान उनके बचपन का नाम था। कुण्डपुर का सारा वैभव | अपने वैज्ञानिक ज्ञान के द्वारा हमने इतनी अधिक अणु-परमाणु का राजकुमार वर्द्धमान की सेवा में समर्पित था। अपने माता-पिता के ऊर्जा और शस्त्र विकसित कर लिए हैं कि तनिक सी असावधानी, इकलौते लाड़ले राजकुमार को सुख-सुविधाओं में किसी भी तरह वैमनस्य या दुर्बुद्धि से कभी भी विनाशकारी भयावह स्थिति बन की कमी नहीं थी, किन्तु उनकी वैरागी विचारधारा को वहाँ का कोई सकती है। ऐसे नाजुक संवेदनशील दौर को हमें थामने की जरूरत भी आकर्षण बाँध नहीं पाया और यही कारण था कि विवाह के आने | है। हथियार की विजय पर विश्वास नहीं, हृदय की विजय पर वाले समस्त प्रस्तावों को ठुकराते हुए वह 30 वर्ष की भरी जवानी में | विश्वास आना चाहिए। तोप, तलवार से झुका हुआ इंसान एक जगत और जीवन के रहस्य को जानकर साधना-पथ पर चलने के | दिन ताकत अर्जित कर पुनः खड़ा हो जाता है किन्तु प्रेम, करुणा लिए संकल्पित हो गए। शाश्वत सत्य की सत्ता का साक्षात्कार करने | और अहिंसा से वश में किया गया इंसान सदा-सदा के लिए निर्ग्रन्थ दैगम्बरी दीक्षा धारण कर उन्होंने कठिन तपश्चरण प्रारंभ कर | हृदय से जुड़ जाता है। मेरी अवधारणा तो यही है कि अहिंसा का दिया। उनकी आत्म-अनुभूति और परम वीतरागता के कर्मपटल व्रत जितना प्रासंगिक महावीर के समय में था उतना ही और उससे छटते गये और एक दिन वे लोकालोक को जानने वाले सर्वज्ञ अर्हन्त | कहीं अधिक प्रासंगिक आज भी है। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को पद को प्राप्त हुए। इस बोधिज्ञान (केवलज्ञान) को उन्होंने जृम्भिका देखकर सम्राट अशोक का दिल दहल गया और फिर उसने जीवन में ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे शाल्मलि वृक्ष के नीचे कभी भी तलवार नहीं उठाई। तलवार की ताकत के बिना ही उसने स्वच्छ शिला पर ध्यानस्थ हो प्राप्त किया था। तदुपरान्त राजगृह नगर अहिंसक शासन का विस्तार किया। रक्तपात से नहीं रक्तसम्मान से के विपुलाचल पर्वत पर धर्मसभारूप समवशरण में विराजमान भगवान् उसने अपने शासन का समृद्ध किया। इसलिए व्यक्ति, समाज, राष्ट्र का प्रथम धर्मोपदेश हुआ। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप और विश्व की शान्ति/समृद्धि के लिए भगवान् महावीर द्वारा दिया चतुर्विध संघ के नायक बन लगातार 30 वर्ष तक सर्वत्र विहार कर | गया "जियो और जीने दो" का नारा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और वह अपने अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह और अकर्त्तावाद आदि | मूल्यवान है। -अप्रैल 2002 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524261
Book TitleJinabhashita 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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