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________________ पर जिनके पूर्वज अपने वंशजों के लिए यह कमाई करके नहीं गए, उन्हें नए सिरे से लाठी-जेल झेलना लाजिमी माना गया। * जाहिर है कि इस तथ्य के मद्देनजर हमारे देश में आजादी के बाद भी तमाम आंदोलन चलते रहे। जो लोग राजनीति की यह पर आगे बढ़ना चाहते थे, वे आंदोलनों के माध्यम से पुलिस की लाठी का स्वाद चखने लगे। कभी-कभी जेल का जायजा भी लेने लगे। मेरा एक दोस्त था, जिसे मैं अक्सर लहू-लुहान अवस्था में अस्पताल में कराहते हुए पाता था। उसके सिर पर इतने टाँके लग चुके थे कि वहाँ फुटबाल की माफिक सिलाई ही सिलाई नजर आने लगी थी। हालाँकि इसके बावजूद भी वह मजदूर यूनियन के स्थानीय लीडर से आगे नहीं बढ़ पाया था। यह माहौल कई वर्षों तक चला, पर बाद में जब भिन्न-भिन्न राजनीतिक पार्टियाँ बारी बारी से सत्ता में आने लगीं, तो उनके बीच यह अलिखित समझौता हुआ कि आंदोलन और पिटाई दोनों ही प्रतीकात्मक होने चाहिए। जो आंदोलन करें, वो ज्यादा हुज्जत न करें और जो पीटे, वो सिर्फ रस्म अदायगी ही करें। जहाँ गिरफ्तारी दें लें, उसी जगह को अस्थायी जेल मान लें। तब से आंदोलनकारी बाकायदा अपने इरादों की सूचना पुलिस को देने लगे और पुलिस भी उनके साथ बाकायदा बैठक कर कुछ इस तरह का वार्तालाप करने लगी पुलिस - कहिये नेताजी कितने लोग होंगे जुलूस में ? नेताजी- दो लाख लोग तो गिरी हालत में भी हो जायेंगे। पुलिस अब इतना भी न फेंकिए, मान्यवर दो लाख तो पूरे शहर की आबादी नहीं है। नेता जी तो उससे क्या होता है यह जनआंदोलन है। सौ मील के इर्द-गिर्द के सैकड़ों गाँवों से हजारों की संख्या में लोग पहुँचेंगे। पुलिस- अच्छा तो यह बात है, फिर तो आंदोलन की विस्तृत रूपरेखा बतलाएँ। नेताजी सुबह आठ से जुलूस निकलेगा और फलों रास्ते से होता हुआ ठिकाँ स्कूल में पहुँच कर आमसभा में तब्दील हो जायेगा। फिर सभी लोग मिलकर मंत्री महोदय के घर के सामने धरने पर बैठेंगे। पुलिस सभी शांति सो तो होगा न? गिरफ्तारी की जरूरत तो नहीं पड़ेगी? नेताजी- पड़ भी सकती है, वैसे गिरफ्तारी हो जाये तो मजा ही आ जाये। मुझ जैसे कुछ लोगों को तो गिरफ्तार कर ही लें आप। बस गिरफ्तारी जरा लंच से पहले ही कर लें और थोड़ा तगड़ा सा लंच खिलवा दें। पुलिस अब जो कैदियों की खुराक को मिलता है, वही न खर्च कर पायेंगे हम लोग ? नेताजी- अरे नहीं, श्रीमान् जी आप तो किसी थ्री स्टार होटल के केटरर को कह दें। जो ऊपर से लगेगा, सो हमारी पार्टी देगी। लंच में कंजूसी न करें और डिनर के पहले रिहा कर दें। पुलिस - ठीक है। लेकिन ध्यान रहे, शांति बनाए रखें। कानून Jain Education International हाथ में न लें, वरना हमें सख्ती बरतनी होगी। इस तरह सौहार्दपूर्ण वातावरण में औपचारिक चर्चा के बाद पूरा टाइम टेबिल तय होता है और तदनुसार ही आंदोलन चलता है। इस व्यवस्था से दोनों पक्ष प्रसन्न रहते हैं। वैसे तो इस समझौते का आदर, सामान्य रूप से सभी करते हैं, लेकिन बाज वक्त किसी अति उत्साही व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के कारण बड़ी गड़-बड़ मच जाती है। ऐसा बहुधा आंदोलनकर्त्ताओं के बीच विद्यमान विभिन्न गुटों के आपसी टकराव के कारण होता है, जो कि कभी- कभी भीषण उग्रता धारण कर लेता है, जैसा कि अभी पिछले दिनों फलाँ प्रदेश की राजधानी में हुआ। कारण का खुलासा तो नहीं हो सका, पर इस बार सत्ताविहीन दल, सत्तापक्ष से सचमुच नाराज पाया गया। संभवतः इनका कोई विधायक उनके साथ जा बैठा या कि ऐसा ही कुछ हो गया। अब जैसी कि परम्परा है, अपने सिक्के को खोटा तो कोई कहे कैसे सो परवैया पर दोषारोपण करते हुए विपक्ष ने आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने ऐलान किया कि वो सत्तापक्ष की ईंट से ईट बजा देंगे। उन्हें चैन से नहीं सोने देंगे। इतना जबरदस्त आंदोलन करेंगे कि उनका जीना हराम हो जायेगा। विपक्षी दल के राष्ट्रीय नेता व सांसद भी आंदोलन में भाग लेंगे और सत्तापक्ष के दल-बदल के गंदे खेल का खुलासा जनता के सामने करेंगे। सत्तापक्ष यह भलीभाँति जानता था कि खिसयानी बिल्ली खंभा तो अवश्य ही नोंचेगी, पर इससे आगे कुछ नहीं कर पायेगी। इसलिए पुलिस ने भी रोजमर्रा की ही माफिक आंदोलनकारियों से चर्चा की। उनका कार्यक्रम जाना। कब कहाँ, कितने लोग एकत्रित होंगे ? कहाँ सभा होगी ? कौन - कौन वक्ता होंगे? क्या क्या बोलेंगे? कितने लोग गिरफ्तारी देंगे? आदि की जानकारी हासिल की थोड़ी हँसी-ठिठोली की और तदनुसार कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी इन्तजाम में लग गए। बाहर से पुलिस बुला ली गई। आरक्षित आरक्षी बल के जवान डंडा लेकर तैनात कर दिए गए। गिरफ्तार लोगों को जेल ले जाने को बसों का जुगाड़ कर लिया गया। इस तरह पुलिस और प्रशासन चाक-चौबंद हो गए। फिर जैसा कि तय था, निर्धारित तिथि को आंदोलन हुआ। जुलूस निकला। सभा हुई। पार्टी के कतिपय बड़े नेता सचमुच ही आंदोलन में शरीक हुए। इनमें कुछ सांसद और कई विधायक भी थे, जो कि प्रदेश में पार्टी के भविष्य का लेकर वाकई चिंतित थे। सबके भाषणों में सत्तापक्ष के प्रति तीव्र आक्रोश की भावना परिलक्षित हुई। भाषा में आग की तपस महसूस हुई। ईट का जवाब पत्थर से देने का आह्वान किया गया। जाहिर है कि लोगों को उत्तेजित करने के लिए इतना काफी था। वैसे भी भारतीय भयंकर भावुक होते हैं। एक बार जो भावना में बहे तो फिर कोई ब्रेक काम नहीं आता। खुद उनके नेता उन्हें संभालने में समर्थ नहीं रह जाते। इसके उदाहरण से सभी लोग भली भाँति परिचित हैं तो कुछ उसी अंदाज में सभा में बहुतेरे लोग खड़े हो गए और करो या मरो की मुद्रा धारण करते हुए, बेरीकेट तोड़कर मंत्रियों के बंगलों की ओर कूच करने को उतारू हो गए। पुलिस तत्काल हरकत में आई। उसने फौरन लाउडस्पीकर पर चेतावनी देने • फरवरी 2002 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 27 www.jainelibrary.org
SR No.524259
Book TitleJinabhashita 2002 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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