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'जैन तत्त्वविद्या' के प्रणेता मुनि श्री प्रमाणसागर जी
प्राचार्य निहालचंद जैन जैन तत्त्वविद्या जैन दर्शन के साहित्याकाश में एक 'ध्रुव' नक्षत्र के भाँति प्रकट होकर ज्ञानरश्मियों के प्रभामण्डल से दीप्त है। यह कृति, जैनागम के चार अनुयोग ग्रन्थों का सारभूत संस्कृत भाषा के दो सौ सूत्रों की व्याख्या या भाष्य है, जो आधुनिक भाषा शैली में प्रांसगिक सन्दर्भो का एक प्रामाणिक ग्रन्थ बन गया है। 'जैन तत्त्वविद्या' के प्रणयन का मूलस्रोत, आचार्य माघनन्दि योगीन्द्र द्वारा रचित 'शास्त्रसार समुच्चय' है, जिसमें प्रथमानुयोग, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग और करणानुयोग रूप जैनदर्शन की विषयवस्तु को संस्कृत के सूत्रों में निबद्ध किया गया है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी द्वारा उक्त सूत्रों की न केवल सुबोध हृदयग्राही आख्या प्रस्तुत की गयी है, वरन् उन्हें विषय-उपशीर्षकों में वर्गीकृत कर संयोजित किया गया है। जैसे प्रथमानुयोग वेदरत्न के अंतर्गत बाईस सूत्रों को चार उपशीर्षकों (1) कालचक्र (2) तीर्थकर (3) चक्रवर्ती और (4) अन्य महापुरष में विभाजित किया गया है। दूसरा करणानुयोग वेद रूप द्वितीय अध्याय के चवालिस सूत्रों को आठ उपशीर्षकों (1) लोक सामान्य (2) अधोलोक (3) मध्यलोक (4) ऊर्ध्वलोक (5) से 8 भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिष्क
और वैमानिक देव में विभाजित है। तीसरे चरणानुयोग वेद के अड़सठ सूत्र तेरह उपबन्धों में - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, श्रावकाचार, बारहव्रत, श्रावक के अन्य कर्त्तव्य आदि में विभाजित है। अंतिम चौथे द्रव्यानुयोग वेद के छयासठ सूत्र सत्रह विषयानुक्रमण शीर्षकों में विभाजित हैं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी जैनागम के ऐसे सत्यान्वेषी दिगम्बर | चतुर्गति का वर्णन पढ़ने से परिणामों में एकाग्रता रूप ध्यान से संत हैं, जिनकी दैनिकचर्या का बहुभाग-अध्ययन/मनन/चिन्तन/ निर्मलता आती है। शोधपरक सूजन के लिये समर्पित रहता है। 'जैनधर्म और दर्शन' (ख) आपकी भाषा शैली प्रवाहमयी एवं सुगम है। कहीं भी आपकी प्रथम बहचर्चित मौलिक कृति ने जहाँ आपके लेखकीय-कर्म | आगमिक पारिभाषिक शब्द दरूह नहीं लगते। सरल. सबोध और को स्वयं के नाम की सार्थकता से जोड़ दिया है, वहीं 'जैन तत्त्वविद्या' संक्षिप्तता आपकी लेखन-शैली की एक पहचान बन गयी है। विस्तृत ने आगम के समुन्दर को बूंद में समाहित करने का भागीरथी प्रयास विषयवस्तु को एक/दो वाक्यों में सुस्पष्ट कर देना मुनिश्री का लेखन किया है। इन दोनों कृतियों ने पूर्व की अध्यात्म-संस्कृति को आधुनिक श्रेयस है। ऐसी प्रभावक लेखन-शैली का उद्भव तभी होता है, जब वैज्ञानिक संस्कृति से जोड़ने का एक अभिनव कार्य किया है। लेखक अपने चिन्तन को मंथन प्रक्रिया के द्वारा प्राञ्जल विचारों का
मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज, जैनागम के आलोकलोक के नवनीत प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। उसके मानस में भ्रम और ध्रुव-नक्षत्र, संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के | भ्रान्तियों के लिए कोई जगह नहीं होती। ऐसे लेखक की कलम की प्रज्ञावान शिष्यों में से एक हैं। अपनी अल्पवय में ज्ञान और वैराग्य नोंक से जो प्रसूत होता है, वह सरल अभिव्यक्ति बन जाता है। के प्रशस्त-पथानुगामी बन अन्तर्यात्रा का जो आत्म-पुरुषार्ष सहेजा (ग) जैन तत्त्वविद्या का प्रणेता/कृतिकार न केवल लेखक है, है, उससे आपके व्यक्तित्व की अनेक विधाएँ प्रस्फुटित हुई हैं। परन्तु पहले एक संत है एक निष्काम, दिगम्बर जैन साधु है। लेखक
(क) आपकी चिन्तनशीलता, वैज्ञानिक एवं शोधपरक है- | संत के वीतरागी व्यक्तित्व के साथ एक दार्शनिक है। जैन न्यायविद् इसका ठोस प्रमाण आपकी प्रस्तुत कृति 'जैन तत्त्वविद्या' है, जिसमें | वास्तुविद्या का पारखी और ज्योतिषशास्त्रों का ज्ञाता है। यही कारण आपने कर्मसिद्धान्त के विषय को करणानुयोग के अन्तर्गत न मानकर | है कि 'जैनधर्म और दर्शन', 'दिव्य जीवन का द्वार', 'अन्तस की द्रव्यानुयोग का विषय माना है। इसके समर्थन में आपका वैज्ञानिक | आँखें' जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियों की कड़ी में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य तर्कपूर्ण है। कर्म पुद्गल द्रव्य है। अस्तु कर्म की समस्त प्रक्रियाएँ | अवदान जैन साहित्य के क्षेत्र में जुड़ गया है जैन तत्त्वविद्या के प्रणयन द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत ली जानी चाहिए तथा करण का अर्थ होता | से जिसमें आपकी तत्त्वान्वेषी वैज्ञानिकता और जिनवाणी की सफल है परिणाम। अस्तु, करणानुयोग के अन्तर्गत जीव के अवस्थान रूप | प्रस्तुत मुखर हुई है।
14 फरवरी 2002 जिनभाषित
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